शुक्रवार, 8 मार्च 2013

'तालीमे - निसवाँ' : 'अकबर' इलाहाबादी की स्त्री -सुबोधिनी


आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन  मन है कि आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक बड़े नाम 'अकबर' इलाहाबादी ( १८४६ - १९२१ ) की स्त्री - सुबोधिनी की बात की जाय। हालांकि अकबर साहब ने 'स्त्री - सुबोधिनी' शीर्षक कोई ग़ज़ल , नज़्म या किताब नही लिखी है लेकिन याद करें कि आज से कुछेक साल पहले अपने ग़ज़ल गायक पंकज उधास साहब जब 'निकलो ना बेनकाब जमाना खराब है' गाया करते थे तो भूमिका या 'दो शब्द' के रूप में क्या कहते थे? याद आया? यदि नहीं तो देख  कर याद करने की कोशिश करें एक बार :

बेपर्दा नजर आईं जो कल चंद बीबियाँ।
'अकबर' ज़मीं में ग़ैरते -क़ौमी से गड़ गया ।

पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ?
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया।

'अकबर' इलाहाबादी ने अपनी बात को कहने के लिए व्यंग्य की शैली अपनाई है। वे आधुनिक उर्दू कविता में व्यंग्य व तंज की ,चुटीली, चुभती पैनी धार के लिए  लिए अलग से जाने - पहचाने - याद किए  भी जाते हैं। अपने विचारों की परिवर्तनीयता की गुंजाइश के लिए उनके यहाँ पर्याप्त स्थान है। अपनी एक नज़्म 'कब तक' में वे 'परदे के चलन' के बारे में अपने विचारों को बदलते भी दिखाई देते हैं :

बिठाई जायेंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक!
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक!

जनाबे -हज़रते - अकबर हैं हामि - ए - पर्दा,
मगर वो कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक 
!


'अकबर' इलाहाबादी की एक नज़्म है 'तालीमे - निसवाँ' जिसे बोलचाल की भाषा में समझने के लिए ' स्त्री - शिक्षा' कहा जा सकता है। इस नज़्म में उन्होंने स्त्री शिक्षा, जो उस समय के सुधारवादी युग की एक बड़ी मुहिम थी व साथ ही 'ललनाओं' और 'बीबियों' के बिगड़्ने का बायस मान लिए जाने के कारण आलोचना - प्रत्यालोचना का मैदान भी , के बाबत अपने विचार रखे हैं। यहाँ पर स्त्री शिक्षा या भारत में स्त्री विमर्श को लेकर कोई एकेडेमिक किस्म का लेख नहीं लिखा जा रहा है सो इतना भर कहना पर्याप्त होगा कि जहाँ एक ओर स्त्री शिक्षा के तमाम हामी अपने काम में लगे थे वहीं दूसरी ओर इसके बरक्स सुधारवादियों के एक गुट ने इसमें थोड़ी कतर - ब्योंत करते हुए बीच का एक रास्ता (!) निकालना चाहा था कि स्त्रियाँ पढ़े , आगे भी बढ़े किन्तु कुछ दिए गए / तय किए गए नियमों व शर्तों के अनुरूप ही। इसके तईं कई- कई  तरह की 'स्त्री - सुबोधिनी' मार्का किताबें , कितबियाँ , पोथियाँ व कवितायें - नज़्में लिखी गईं। अगर एकाध का उल्लेख करने की अनुमति हो तो डिप्टी नजीर अहमद के उपन्यास 'मिरातुल उरूस उर्फ अकबरी असगरी की कहानी' को याद किया किया जा सकता है। इस तरह की कविताओं की संख्या तो बहुत है उन पर अलग से। 'तालीमे - निसवाँ' भी इसी सिलसिले की एक नज़्म है जिसे आधुनिक भारत में स्त्री शिक्षा की एक सुबोधिनी के तौर पर देखा जा सकता है।यह अपने इतिहास में झाँकने का वह दस्तावेज है जिसे अनदेखा करना उचित नहीं। इस नज़्म के बहाने इस स्त्री शिक्षा के मुद्दे पर उर्दू और हिन्दी साहित्य को रू- ब- रू रखकर इतिहास के आईने में अपने समय व समाज की शक्ल भी देखी जा सकती है व आज की स्थिति को बीते हुए कल के आलोक में देखा जा सकता है।

आज महिला दिवस  के  मौके पर अपने हिस्से की साझी दुनिया और अपनी साझी भाषा कें भंडार को खँगालते हुए 'तालीमे - निसवाँ' के कुछ अंश आपस में साझा करते हैं, इस उम्मीद के साथ कि इस पृथ्वी को 'म से मर्द' और 'औ से औरत' के रहने के वास्ते चीरकर आधा - आधा नहीं किया जा सकता। दोनो को यहीं इकट्ठे यहीं रहना है इसी दुनिया में - इसी पृथ्वी पर - गुइयाँ - संघाती - मीत - दोस्त - साथी बनकर।


तालीमे - निसवाँ / 'अकबर' इलाहाबादी( कुछ चुनिन्दा अंश )

तालीम औरतों को भी देनी जरूर है।
लड़की जो बेपढ़ी है तो वो बेशऊर है।

हुस्ने - मआशरत में सरासर फ़ितूर है।
और इसमें वालिदैन का बेशक कुसूर है।

उन पर ये फ़र्ज़ है कि करें कोई बन्दोबस्त।
छोड़ें न लड़कियों को जहालत में शादो - मस्त।

लेकिन जरूर है मुनासिब हो तरबियत।
जिससे बिरादरी में बढ़े कद्रो - मंजिलत।

आज़ादियाँ मिज़ाज में आयें , न तमकनत।
हो वह तरीक़: जिसमें नेकी- ओ- मसलहत।

तालीम है हिसाब की भी वाजिबात से।
दीवार पर निशान तो हैं वाहियात से।

ये क्या, ज़ियादा गिन न सके पाँच सात से।
लाज़िम है काम ले वो क़लम और दवात से।

घर का हिसाब सीख लें खु़द आप जोड़ना।
अच्छा नहीं है ग़ैर पर यह काम छोड़ना।

खाना पकाना जब नहीं आया तो क्या मजा!
जौहर है औरतों के लिए यह बहुत बड़ा।

लंदन के भी रिसालों में मैंने यही पढ़ा।
मतबख़ से रहना चाहिए लेडी का सिलसिला।

सीना पिरोना औरतों का खास है हुनर।
दर्जी की चोरियों से हिफ़ाजत पे हो नजर।

औरत के दिल में शौक हो इस बात का अगर।
कपड़ों से बच्चे जाते हैं गुल की तरह सँवर।

सबसे ज़ियादा फ़िक्र है सेहत की लाजिमी।
सेहत नहीं दुरुस्त तो बेकार जिन्दगी।

खाने भी बेज़रर हों सफ़ा हो लिबास भी।
आफ़त है हो जो घर की सफ़ाई में कुछ कमी।

तालीम की तरफ अभी और इक क़दम बढ़ें ।
सेहत के हिफ़्ज़ जो क़वायद हैं वो पढ़ें ।

पब्लिक में क्या जरूर कि जाकर तनी रहो।
तक़लीदे - मग़रिबी पे अबस क्यों ठनी रहो।

दाता ने धन दिया है तो दिल की ग़नी रहो।
पढ़ लिख के अपने घर की ही देवी बनी रहो।

मशरिक़ की चाल ढाल का मामूल और है।
मग़रिब के नाज़ो - रक़्स का स्कूल और है।

दुनिया में लज़्ज़तें हैं नुमाइश है शान है।
उनकी तलब में हिर्स में सारा जहान है।

'अकबर' से सुनो कि जो उसका बयान है।
दुनिया की ज़िन्दगी फ़क़त इक इम्तिहान है।

* -------------
हुस्ने - मआशरत में = सामाजिक आचार विचार में
शादो - मस्त = प्रसन्न और मस्त
तरबियत = पालन पोषण
क़द्रो -मंजिलत = सम्मान
तमकनत = घमंड
रिसालों = पत्रिकाओं
मतबख़ = पाक कला
बेज़रर =हानि रहित
हिफ़्ज़ = सुरक्षा , रखरखाव
तक़लीदे - मग़रिबी = पश्चिम की नक़ल
अबस = व्यर्थ
ग़नी = दानी
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( चित्र : अंजलि इला मेनन की कुछ पेटिंग्स,  साभार गूगल छवि )

4 टिप्‍पणियां:

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

बेपर्दा नजर आईं जो कल चंद बीबियाँ।
'अकबर' ज़मीं में ग़ैरते -क़ौमी से गड़ गया ।

पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ?
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया।
kya kahane .. aapko sadhuvaad jo inhen padhane ka mouqa diya

Ashok Kumar pandey ने कहा…

आज के दिन यह पढ़ना दिन की शानदार शुरुआत है...शेयर कर रहा हूँ

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

घर का हिसाब सीख लें खु़द आप जोड़ना।
अच्छा नहीं है ग़ैर पर यह काम छोड़ना।

महिला दिवस पर बहुत उम्दा प्रस्तुति,,,

Recent post: रंग गुलाल है यारो,

अजेय ने कहा…

और आज वो खुद बोल सकती है अपने बारे