सोमवार, 28 मई 2012

चले दिल्ली : शेख चिल्ली

इस समय गर्मी अपने चरम पर है। सही बात है गर्मी अपने चरम पर है तभी तो मौसम खूब गरम है। ऐसे में कहीं जाना मानो वही सब कुछ जिसे शायरी में कहा गया है 'आग का दरिया और डूब के जाना'। फिर जब जाना है तो जाना है , कोई नहीं  बहाना है। झोले में रख दिया गया है सब सामान ; अब  ट्रेन का टिकट भी प्रिन्ट कर लो  हे श्रीमान। सुबह - सुबह नौकरी पर जाना है, वहाँ से लौटकर खाना  खाकर निकल जाना है ; इसलिए आज जल्दी सो जाना है। फिर भी सोने से पहले कवितानुमा जो कुछ है अभी - अभी  लिखा ; उसे सब सहृदय   कविता  प्रेमी  साथियों को तनिक दें दिखा .....

चले दिल्ली : शेख चिल्ली

दो दिन  के लिए दिल्ली
जा रहे हैं शेख चिल्ली

डर लागे , लागे डर
काँपे जिया थर - थर
झोले में सामान रखा
गिन कर , चुन कर

सहेजे हैं कागज पत्तर
मानो सोने की सिल्ली।
दो दिन  के लिए दिल्ली
जा रहे हैं शेख चिल्ली ।

दिल्ली को लेकर बहुत
मन में है आशंका
खो न जाये तूती अपनी
सुनकर नगाड़ा -  डंका

क्या पता टकरा जाए
कोई बिल्ला या बिल्ली।
दो दिन  के लिए दिल्ली
जा रहे हैं शेख चिल्ली  ।

बेतुका है वक्त यह तो
सीमित है लय व तुक
सिल्ली और बिल्ली में
खत्म सब , गया चुक

दूर है बहुत ही दिल्ली
फिर भी चल पड़े दिल्ली।
दो दिन  के लिए दिल्ली
जा रहे हैं शेख चिल्ली॥
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गुरुवार, 24 मई 2012

हिंदी समाज के हाशिए में चले जाने की गाथा : बटरोही का उपन्यास - ‘गर्भगृह में नैनीताल’



हिंदी साहित्यिक त्रैमासिकबयाके नए अंक (जनवरी-मार्च, 2012) में बटरोही का एक आत्मकथात्मक उपन्यास प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक हैगर्भगृह में नैनीताल।इसमें फ़िक्शन और आटोबायोग्राफी का  रिमिक्स है जो  आज की दुनिया में रहते हुए स्मृति और लोक के बीच की शिफ़्ट , डायवर्जन और डेविएशन को लेकर बुना गया है। यह कथाकार और चरित्रों की कथा तो है ही, अपने भूगोल और इतिहास की कथा भी है। समय गतिमान है लेकिन हमारी स्मृति की रफ़्तार के साथ उसका मेल होने और होने बीच कि स्थिति इसके बीज के रूप में दिखाई देती है।  उपन्यास पचास - साठ के दशक  
के दो दोस्तों - नैनीताल नगर पालिका स्कूल की आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले लक्ष्मणसिंह बिष्टबटरोहीऔर मशहूर पब्लिक स्कूल शेरवुड कालेज में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले अमिताभ बच्चन के हिंदी की मुख्यधारा के कला-समाज में प्रवेश से जुड़े संघर्षों की कहानी है। तालाब किनारे बचपन की भोली शरारतों के बीच विकसित हुए इन दो बच्चों में से एक अपने आदिवासी समाज के सदियों पुराने विश्वासों से मुक्त होने के सपनों को लेकर नैनीताल आया था और दूसरा पूरब का आक्सफोर्ड कहे जाने वाले देश के मशहूर  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हरिवंश राय बच्चन द्वारा हिंदी की  समृद्ध गीति - परंपरा को भारतीय कलाओं का अभिन्न अंग बनाने के सपनों के साथ भेजा गया था। दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे, मगर दोनों का लक्ष्य एक था : हिंदी के कला-समाज को संसार की कला-परंपरा के साथ जोड़ना। इसलिए ये दोनों भावनात्मक रूप से एक- दूसरे के साथ टकराते रहते थे। इस क्रम में पहला हिंदी का अध्यापक और लेखक बना और दूसरा बालीवुड अर्थात हिन्दी सिनेमा का लोकप्रिय अभिनेता। दोनों ने अपने - अपने क्षेत्र में जी - जान से कोशिश की। नैनीताल और बुदापैश्त (हंगरी) में दोनों की मुलाकातें भी हुई, मगर दोनों की कोशिश के बावजूद पिछली आधी सदी में तो हिंदी का लेखक भारतीय कलाओं में दखल देने योग्य व्यक्तित्व हासिल कर सका और हिंदी कविता भारतीय कलाओं से जुड़ी चिंताओं का हिस्सा बन सकी, जिसके लिए बच्चन जी ने अमिताभ को इलाहाबाद से नैनीताल भेजा था। पन्यास में बटरोही के छह सपनों का विवरण है। पेश है उनमें से एक रोचक सपने के चुनिन्दा अंश :


     छठा सपना : ‘खड़कुवा (नहीं) बनेगा करोड़पति’ उर्फ ‘जी ! मैं अण्णा हजारे नहीं हूँ’ 

आज का केबीसी एपीसोड अब तक के जुए से थोड़ा फर्क था। भारतीयों के बीच जुआ खेलने की एक समृद्ध परंपरा रही है! भारत का सबसे बड़ा जुआ शकुनि के नेतृत्व में कौरवों और पांडवों के साथ-साथ दानवीर कर्ण और अपनी निष्ठा के लिए प्रसिद्ध बाबा भीष्म और राजनयिक द्वारकाधीश ने मिलकर खेला था! तब भी जुए का दाँव एक औरत पर लगाया गया था, आज के इस जुए के केंद्र में भी एक औरत ही थी। तब द्रोपदी पर उसके पाँच पतियों ने दाँव लगाया था, आज, रोजलिना के पति की नक्सलियों के द्वारा हत्या कर दिए जाने पर उसके बहाने सारा देश रोजलिना पर दाँव लगा रहा था। हालाँकि दाँव पर पति लगा था, मगर उसकी सजा तो उसकी विधवा ही भुगत रही थी! शायद इसीलिए अमिताभ बच्चन आज के इस एपिसोड में अपने फिल्मी जीवन की सारी अर्जित प्रतिभा झौंक देना चाहते थे... मानो यह रोजलिना की नहीं, उनके अपने जीवन की सबसे बड़ी चुनौती हो! 

हॉट सीट पर विराजमान रोजलिना के सब-इंसपेक्टर पति की नक्सलियों के द्वारा हत्या कर दी गई थी और वह अपने पति की यादों को जिंदा रखने के लिए अपने घर में एक अलग कमरा बनाना चाहती थी। इसी कमरे के निर्माण के लिए रोजलिना ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में भाग लेकर ‘ढेर सारे रुपए’ कमाना चाहती थी। पाँच करोड़ के इस जुए में रोजलिना ने कुल साढ़े बारह लाख रुपए जीते थे और जुआ खेलने के बाद उसने अमिताभ बच्चन को अपनी वह डायरी दिखाई थी जिसमें उसके मरहूम पति ने पहली बार रोजलिना के प्रति अपने प्यार का इजहार किया था। इसी डायरी में रोजलिना को संबोधित करते हुए उसके पति ने अपनी यह इच्छा व्यक्त की थी कि उसकी मृत्यु एक शहीद के रूप में हो और उसका अंतिम संस्कार तिरंगे में लपेट कर किया जाए। उन्हीं रुपयों से रोजलिना अपनी बच्ची की ऐसी परवरिश करना चाहती थी, जिससे कि उसमें राष्ट्रवाद के संस्कार पैदा हो सकें और वह अपने पिता की ही तरह राष्ट्र के काम आकर अपने पिता का नाम रोशन कर सके।

‘कौन बनेगा करोड़पति’ के इस एपीसोड में रोजलिना की जिंदगी का एक नाट्य-रूपांतर प्रस्तुत किया गया था, जिसमें रोजलिना के दर्द को उसकी डमी कलाकार ने दहाड़ मार-मार कर रोते हुए पेश किया था और टीवी के पर्दे पर ही पति की इच्छानुसार उसके शव का तिरंगे में लपेटकर संस्कार किया गया था। (वास्तविकता में तो ऐसा किया ही गया होगा।) रोजलिना की डमी को उसके अभिनय के बदले में पता नहीं कितने रुपए मिले होंगे, रोजलिना को इस वास्तविक अभिनय के लिए मिले थे ‘स्साढ़े ब्बारह ल्लाख रुप्पे!...’ अमिताभ बच्चन के हाथों से साढ़े बारह लाख रुपए का चेक ग्रहण करते हुए रोजलीना की आँखों में अपने स्वर्गीय पति की स्मृति की अपेक्षा यह पश्चाताप साफ दिखाई दे रहा था कि अगर वह दसवें प्रश्न के उत्तर में अपने दिमाग में एकाएक कौंधे ऑप्शन नं. 1 को बता देती तो इस वक्त उसे पच्चीस लाख रुपए का चेक मिल रहा होता।... यानी साढ़े बारह लाख और!...

‘पच्चील्लाख रूपे... क्या करती रोजलीना जी आप इतने रुपों से... ?’ अमिताभ बच्चन रोजलीना की आँखों में आँखें डालकर पूछ रहे होते... और रोजलिना सोच रही होती, काश, उसने अपने दिमाग में कौंधा हुआ पहला ऑप्शन बता ही दिया होता तो उसे एक और मौका मिल गया होता... और कौन जाने इस वक्त वह पचास लाख की मालकिन होती !... इतना ही क्यों, क्या पता वह एक करोड़... या पाँच करोड़ तक ही पहुँच चुकी होती!... रोजलिना यह भी सोच रही होती, टीवी के पर्दे पर इतनी सहानुभूति दिखाने से तो बेहतर होता, अमिताभ जी यह भाँप लेने के बाद कि उसके दिमाग में ऑप्शन नं. 1 आ गया है, उसकी मदद कर ही देते... ‘फाइनल जवाब, रोजलिना जी... लॉक कर दूँ...’ और रोजलिना के इशारे का इंतज़ार किए बगैर वह पहला ऑप्शन लॉक कर ही देते!... और रोजलीना इस वक्त अमिताभ जी के ऑटोग्राफ वाला पच्चीस लाख, या पचास लाख, या एक करोड़... का चेक ले जा रही होती!...
...अमिताभ जी ने लॉक नहीं किया। वह लॉक करना भी नहीं चाहते थे, क्योंकि उनकी रुचि वास्तविक रोजलिना में नहीं, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के उस एपीसोड की नायिका में थी, जिसने उसकी डमी के रूप में कुछ ही देर पहले सफलता-पूर्वक अपनी भूमिका अदा की थी। जिस प्रकार उस डमी का नाम किसी को मालूम नहीं था, न किसी के मन में जानने की इच्छा जागी थी, तब भला अमिताभ जी ही क्यों उस अभिनेत्री (डमी) को छोड़कर वास्तविक रोजलिना में रुचि लेते ? एक अभिनेता होने के नाते वह वास्तविक रोजलिना की अपेक्षा अभिनेत्री रोजलिना में ही तो रुचि लेते। यही तो कला की चरम सार्थकता है कि उसमें पात्र अपने निजी अस्तित्व को काल्पनिक चरित्र में इस तरह विलीन कर दे कि उसकी अपनी पहचान गायब हो जाए! साधारणीकरण के सिद्धांत की चरम परिणति! यही तो भारत में नाट्यशास्त्र के आदि-पुरुष भरतमुनि ने कहा था:  विभावानुभावसंचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः... विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के मिलन से ही रचना के आनंद की प्राप्ति होती है!... रोजलिना के पति ने भी तो आतंकवाद से लड़ते हुए पुलिस के सिपाही के रूप में एक भूमिका ही अदा की थी, एक नट की भूमिका... जिसमें से देशप्रेम नामक ‘रस’ की निष्पत्ति हुई थी! इसी रसानुभूति का आनंद लूटने के लिए आज समूचा भारत हॉट सीट पर बैठी रोजलिना के चारों ओर एकत्र हुआ था और तालियाँ पीटकर उसका आभार व्यक्त कर रहा था।... 

...रोती हुई रोजलिना के आँसुओं को पोंछने के लिए नेपकिन थमाते हुए अमिताभ भावुक आवाज़ में रोजलिना से कह रहे थे, ‘आपको कैसा लगा रोजलिना जी, जब अपने पति को आपने पहली बार शहीद के रूप में देखा’... और रोजलिना के रुँधे हुए कंठ से यह कहने पर कि ‘मुझे गर्व है अपने पति पर’, अमिताभ ने अपनी भीगी आँखों से दर्शकों की ओर देखकर तालियाँ बजाई थी, जिसके बाद दर्शकगणों की तालियों से सारा हॉल देर तक गूँजता रहा था। उस वक्त हॉट सीट और एंकर को घेरे दर्शकों का समूह रोम के उस एंफीथिएटर की याद दिला रहा था, जिसमें ग्लेडिएटरों को लड़ते हुए देखकर रोम का भद्र समाज तब तक तालियाँ पीटता रहता था, जब तक कि उनमें से किसी एक के जीवन का अंत नहीं हो जाता था।...

यह एपीसोड वृहस्पतिवार, 6 अक्टूबर की रात पौने दस बजे के आसपास तक चला। टीवी देखते हुए बीच में ही जाने कब मुझे नींद आ गई थी और मैं अपनी आदत के अनुसार उसी क्षण से सपने देखने लगा था। सपने में ही न जाने कब ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सारे पात्र गड्डमड्ड हो गए और पल भर में ही अपनी भूमिका से हटकर एक-दूसरे की जगह पर बैठ गए थे। मसलन अमिताभ जी की एंकर सीट पर मुझे कथाकार-एक्टिविस्ट अरुंधती रॉय दिखाई देने लगीं और हॉट सीट पर कभी खड़कुवा तो कभी मैं अपने-आप को बैठा दिखाई देने लगा।... अमिताभ जी नैनीताल की ठंडी सड़क पर सियार को घसीट रहे गड़िया लोहार बन गए थे और वह सियार के रूप में कभी मेरी तो कभी खड़क सिंह रैक्वाल की देह को घसीट रहे थे... हालाँकि दोनों ही स्थितियों में दर्द मेरी ही देह में हो रहा था। 

मैं बहुत साफ देख पा रहा था कि जिस क्षण रोजलिना के मन में यह बात आई थी कि काश, अमिताभ जी ऑप्शन नं. 1 को लॉक कर ही देते, खड़कुवा सोच रहा था कि काश, नैनीताल के तालाब में बोटिंग करते हुए उसके ‘परमपिता परमेश्वर’ मंत्री जी, उनकी पत्नी ‘देवी भगवती’ और उनके दोस्त शेरवुड के अमिताभ बच्चन उसकी बीवी के बलात्कारी तरिया को पकड़कर उसे सौंप देते तो वह अपने हाथों से उसकी हत्या करके जन्म-जन्मांतर के बंधनों से मुक्त हो जाता!... मगर ऐसा नहीं हो पाया था क्योंकि उन तीनों में से कोई भी न तो खड़कुवा को पहचानता था और न खड़कुवा ही उन्हें पहचान पाया था। पहचानता भी कैसे... खादी का कुरता-पैजामा और चप्पल पहनने वाले उसके भगवान ने उस दिन जींस-जैकेट पहन रखी थी और खादी-सिल्क की साड़ी पहनने वाली ‘देवी भगवती’ पहने हुए थीं इटेलियन स्लेक्स और केनेडियन जैकेट! और अमिताभ जी तो अभिनेता ही ठहरे, जिन्हें हर कार्यक्रम के लिए एकदम नई और फर्क पोशाक चाहिए, जो उससे पहले एक बार भी न पहनी गई हो!

इसके बावजूद, सपने में जो मैं देख रहा था, यह वही घटनाक्रम था, जिसे थोड़ी देर पहले टीवी के पर्दे पर दिखाया गया था। रोजलिना को उड़ीसा सरकार ने पुलिस कार्यालय में नौकरी दे दी है, जहाँ की व्यस्तता के बीच उसे जो वक्त मिलता है, उसमें वह अपनी बच्ची को उसके पिता की तरह राष्ट्रवादी संस्कार देना चाहती है। रात को वह डायरी लिखती है, जिससे कि युवा होने पर उसकी बच्ची के मन में उसे पढ़कर पिता की एक-एक स्मृति ताज़ा हो सके... राष्ट्र के प्रति स्वयं को समर्पित कर सकने का जज़्बा पैदा हो सके।... बच्ची के लिए पिता अभी मरे नहीं हैं क्योंकि जब कभी वह अपनी माँ से नाराज़ होती है, अपने पिता की फोटो से उसकी शिकायत करती है। रोजलिना अपनी सारी संपत्ति, सपने और ऊर्जा अपने मृत पति की स्मृतियों को अर्पित कर देना चाहती है, जिससे कि उसकी बेटी युवा होने के बाद जीवन के उन छूट चुके पलों को उसी तीव्रता के साथ ब्याज सहित उसे लौटा सके।
 
रोजलिना को इस बात का अहसास है कि बेटी के जवान होने तक तो वह बूढ़ी हो चुकी होगी, मगर उसे विश्वास है कि वह बेटी के रूप में अपने पति के प्यार को हमेशा प्राप्त करती रहेगी।... तभी, रोजलिना के भीतर पैठी हुई अरुंधती रॉय उससे पूछती है, ‘रोजलिना, पति की भरपाई बेटी कैसे कर सकती है... आखिर राष्ट्र और समाज के अतिरिक्त आदमी की अपनी निजी ज़िदगी भी तो होती है!’... रोजलिना जवाब देती है, ‘अरुंधती, रिश्तों के पीछे जो भावना छिपी है, वह तो सबमें एक जैसी ही होती है, चाहे पति हो या बेटी... अंततः व्यक्ति की सार्थकता तो समष्टि के लिए ही है न!... सवा अरब लोगों की समष्टि के सामने रोजलिना के निजी अस्तित्व का क्या मतलब है ?...’ अरुंधती की समझ में नहीं आ रहा कि रोजलिना अपनी लंबी जिंदगी के बचे हुए पलों की आहुति इतनी आसानी से क्यों दे रही है... क्या आधी से अधिक बची हुई जिंदगी के लंबे कालखंड में कभी भी उसके अपने, निजी और अंतरंग क्षण नहीं आएंगे?... 

...मगर सच तो यही है कि रोजलिना आज के दिन अरुंधती के तर्कों से सहमत नहीं है। पूरे विश्वास के साथ वह कहती है, ‘जैसे एक आम भारतीय आज भी अपना पेट काटकर अपनी खून-पसीने की कमाई भगवान के नाम पर दान पात्र में डाल आता है, इस प्रार्थना के साथ कि उसकी सारी मनोकामनाएँ भगवान पूरी कर देंगे... यह जानते हुए कि वह पैसे भगवान् के पास तो पहुँचेंगे नहीं, उनसे आखिरकार पुरोहित का चरित्रहीन बेटा दारू पिएगा!... मगर क्या इस तर्क के आधार पर वह भगवान् के प्रति अपनी भावना ही त्याग दे ?... ‘मानुस हों तो वही रसखान, बसौं ब्रज-गोकुल गाँव के ग्वारन’... रोजलिना के मन में द्वंद्व चल रहा है, ‘जानते हो अरुंधती, यह वाक्य किसने कहा था? एक मूर्तिभंजक ने !... जब एक मुसलमान अपना पुनर्जन्म हिंदू देवता के घर में लेना चाहता है, तो एक सच्चा देशभक्त अपने प्यारे देश के लिए क्या नहीं कर सकता ? देश भी तो हमारा एक विशाल संयुक्त परिवार ही है!’

इस वाद-विवाद के बाद अरुंधती के लिए रोजलिना की देह के अंदर कैद रह पाना कठिन हो गया। तेजी से वह ऐक्टिविस्ट की भूमिका में सामने आई और उसने ललकारते हुए अपने लेख को ‘समयांतर’ से कट करते हुए रोजलिना के दिमाग में पेस्ट किया। ठीक अमिताभ की शैली में उसने कहा, ‘‘तो लेट्स प्ले कौन बनेगा करोड़ पती... पंच कोटि महामणी... ऑडिएंस, तैयार हो जाइए... आपका ध्यान कंप्यूटर स्क्रीन पर... और आपको मिलेंगे सिर्फ तीस सेकेंड!... और आपका सवाल है ये...: ‘‘जन लोकपाल बिल के बारे में आप अपनी राय बताइए... और आपके ऑप्शन हैं : (ए) वंदे मातरम्, (बी) भारत माता की जय, (सी) इंडिया इज अण्णा, अण्णा इज इंडिया, और (डी) जय हिंद।...’

इसके बाद रोजलिना-अरुंधती का यह संवाद कब खत्म हुआ, मुझे याद नहीं। अमूमन सुबह उठने पर सपने मुझे याद रहते हैं, इस बार सपने भी मानो मेरे दिमागी सॉफ़्टवेयर से इरेज हो गए! इसके बावजूद यहाँ जो मैंने लिखा है, वह सपना नहीं, पूरे होशो-हवास में देखा गया दिवा-स्वप्न है, जिसकी शुरूआत आज से साठ साल पहले मैंने अपने दोस्त खड़क सिंह रैक्वाल के साथ धसपड़ गाँव से की थी। उन दिनों मेरे गाँव धसपड़ के बाईस घरों की कुल जन-संख्या 176 थी, जिसमें बत्तीस गाएँ, अठाईस भैंसें, बारह बैल, पचास बकरियाँ, एक साँड़, एक भैंसा और घरों के अंदर-बाहर उछलते-कूदते तेईस कुत्ते, ग्यारह बिल्लियाँ, अनगिनत चूहे और उन्मुक्त भागती-चिंचियातीं हजारों रंग-बिरंगी चिड़ियाँ, तितलियाँ, मीठा सुगंधित शहद ढोती मधुमक्खियाँ, एक असीम आकाश, क्षितिज पर पहरेदारों की तरह खड़े सैकड़ों देवदार और सफेद पारदर्शी जल-धाराओं के साथ आँख-मिचैनी करते झरने शामिल नहीं हैं... जब कि आज हमारे चारों ओर जो विश्व-ग्राम पैदा हो गया है, उसमें मानव संख्या तो इकत्तीस अक्तूबर को सात बिलियन हो गई है, मगर उसमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, कीट-पतिंगे कितने बचे हुए हैं, इसके आँकड़े हम में से किसी के पास नहीं हैं, बावजूद इसके कि अपने ऑफ्टवेयर ‘एप्पल’ के जरिए हमारे समय में नई संचार-क्रांति लाने वाला कंप्यूटर का बेताज बादशाह छप्पन वर्षीय स्टीव जॉब्स मेरे ही शहर नैनीताल के बगल में स्थित कैंची धाम के बाबा नींब करौली के साथ लंबे समय तक रहा था और अपने गुरू के चरण छूने के लिए यहाँ आता-जाता रहता था। 


मंगलवार, 22 मई 2012

यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय

मई का महीना अप्रेल के क्रूर विस्तार को सहज विस्तारित करते हुए  लगभग मारक चल रहा है - खूब सारा काम और खूब सारी यात्रायें। इस बीच दो नदियों गंगा और कर्मनाशा के इलाके से लू और तपन के जबरदस्त थपेड़े खाकर लौटा हूँ। लगता है कि वहाँ आसमान से आग बरस रही है। उसके मुकाबिल यहाँ अपने हाल मुकाम  हिमालय की तलहटी में तापमान अपेक्षाकृत  सुखकर है। पारिवारिक वैवाहिक आयोजनों की  यात्रा से लौटकर बहुत सारी चीजों को याद कर रहा हूँ। इनमें से एक आलता भी है। आलता जिसे महावर भी कहा जाता है। अभी भी यह मेरे  पैरों की उंगलियों  और नाखूनों पर वह विद्यमान है।  कल  जब बहुत  दिनों बाद संडल पहना तो  एक सहकर्मी ने इस बाबत पूछा  कि यह क्या है? फिर  कई बातें निकल पड़ीं :  शादी - ब्याह से  लेकर पूजा - पाठ तक और 'गोड़' रंगने वाली नाउन के नेग तक। यह भी बात चली कि  अब बढ़िया आलता बाजार में नहीं मिलता; पुड़िया वाला रंग घोलकर ही  काम चलाया जाता है, और यह भी कि शायद किसी बंगाली बिसाती की दुकान पर  ठीकठाक  आलता मिल जाय। अब जो भी हो 'आलता' शीर्षक से एक कविता कुछ महीने पहले लिखी थी। वह कल के आलता - प्रसंग में आज खोजी गई और इस वक्त सबके साथ साझा की जा रही है। आइए इसे देखें पढ़े..

आलता

इसे महावर कहूँ
या महज चटख सुर्ख रंग
उगते - डूबते सूरज की आभा
वसंत का मानवीकरण
या कुछ और।
खँगाल डालूँ शब्दकोश का एक - एक पृष्ठ
भाषा विज्ञानियों के सत्संग में
शमिल हो सुनूँ
इसके विस्तार और विचलन की कथा के कई अध्याय
क्या फर्क़ पड़ता है !

फर्क़ पड़ता है
इससे
और..और दीपित हो जाते हैं तुम्हारे पाँव
इससे सार्थक होती है संज्ञा
विशिष्ट हो जाता है विशेषण
पृथ्वी के सादे कागज पर
स्वत: प्रकाशित होने को
अधीर होती जाती है तुम्हारी पदचाप।

आलता से याद आती हैं कुछ चीजें
कुछ जगहें
कुछ लोग
कुछ स्वप्न
कुछ लगभग भुला से दिए गए दिन
और कुछ - कुछ अपने होने के भीतर का होना।

फर्क़ पड़ता है
आलता से और सुंदर होते हैं तुम्हारे पाँव
और दिन - ब- दिन
बदरंग होती जाती दुनिया का
मैं एक रहवासी
खुद से ही चुराता फिरता हूँ अपनी आँख।

यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय
न ही किसी वाक्यांश के लिए एक शब्द
न ही किसी शब्द का अनुलोम - विलोम
कोई सकर्मक - अकर्मक क्रिया भी नहीं।

क्या फर्क़ पड़ता है
इसी क्रम में अगर यह कहूँ -
तुम हो बस तुम
आलता रचे अपने पाँवों से
प्रेम की इबारत लिखती हुई
लेकिन यह मैं नहीं
यह आलता सिर्फ़ आलता भी नहीं
और हाँ , यह सब कुछ संभवत: कविता भी नहीं।
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शनिवार, 5 मई 2012

कविता के भीतर जो बारिश है : मोनिका कुमार की कवितायें

रेशम के कीड़े शाल में छुपे रहते हैं
धैर्य से टूटते रहते हैं
गेहूं के अंदर ही है घुन
मटर की आज्ञा है कि उसे सुंडिया खा जाएँ

आज प्रस्तुत हैं मोनिका कुमार की चार कवितायें। मोनिका जी चंडीगढ़ में   रहती हैं। सेक्टर 11 अवस्थित राजकीय कालेज  के अंग्रेजी विभाग में सहायक प्रोफेसर  के रूप में कार्यरत हैं। वह विश्व साहित्य की गंभीर अध्येता व अध्यापक  हैं , कविता प्रेमी हैं , अनुवादक  हैं , कवि हैं। उनकी कविताओं ने इधर कई जगहों पर  अपने टटकेपन , अंतर्वस्तु की वैविध्यता, अपनी - सी कहन और अपने देश - काल की खालिस भाषिक रंगत की सहज प्रस्तुति के कारण  ध्यान आकृष्ट किया है । आइए, हम भी इन कविताओं के साथ - साथ एक यात्रा  करते हैं...


मोनिका कुमार की कवितायें

01.  
             
विराट का मेरा प्रथम अनुभव है
तरबूज़  देखना
मैं अंदाजन कह पाती हूँ
कितना है प्यार तुमसे
हाथ भर
समन्दर जैसे
ज़रा भी नहीं
अंदाज़ा नहीं रहता
तरबूज़ देखते हुए
कितना होगा गुदगुदा
लाल
और कैसे सजी होंगी ढेरों आँखें समाधि में

तुम जिद्द पर अड़े रहे
धरती है संतरे सी गोल
नहीं माना तुमने
यह हो सकती है तरबूज सी

खैर !
मैंने झूठ कहा तुमसे
अंदाजन कह पाती हूँ
कितना है प्यार तुमसे

सारे अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं
मुझे चाहिए कुछ विस्मयादिबोधक
उन्माद वाहक
जो करते हैं नाकामियों का
विनम्र अनुवाद

02. 

दिन का चढ़ा आधी रात तक उतरता है
अहिस्ता उतरती है रात दिन की सीढ़ियों से
और गुज़रा हुआ दिन टूटे हुए फूल की तरह
बिछ जाता है
इसी पहर उस फूल को किताब में रख के
आईने की तरह पढ़ती हूँ
रात दिन को विस्मृत करती है
दिन रात को रहने नहीं देता
दोपहर की अलसाई नींद
खुलते ही अवसाद करती है
जैसे नींद रात की धरोहर हो
जिसे दिन में लूट लिया जाये
दिन जैसा कुछ भी करना रात के एकांत को कष्ट देता है
रात में लिखी चिठ्ठी पढ़तुम को रात ही में पढ़नी चाहिए
लेकिन फिर भी चिठ्ठी खुलती है सिखर दोपहर
और पढ़तुम को ठीक समझ आती है
कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय
कविता के भीतर जो बारिश है
उस में भीगने के लिए कब हाथ उठाने चाहिए
फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों
तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे
दिन और रात की संसृति में
मनचाहा मौसम है
जिन्हें आती है यह जादुगरियां
वह दिन में भी अपनी हर सांस सुनते हैं
और रात में दोपहर-खिड़ी से खिलते हैं

03. 

वृत का अर्धव्यास तय कर रहा है
वृत के फैलने की सीमा
केंद्र से हर बिंदु उतना ही दूर सुदूर
तुम्हारा एक पांव कम्पास की सुई है
जो दुसरे पांव के गिर्द घेरे बुनता है
सुई गोंद्ती रहती है हर वक़्त ज़मीन को
तुम फिसलते हो इस गोलाई से बाहर जाने के लिए
और तुरंत उठ खड़े हो जाते हो फैसला बदलकर

तुम्हारी बाजुएँ आकाश नापती है
और पांव धरती
तुम्हारे और अनगिनित दायरे हैं
इसीलिए मैं सबसे पहले तुम्हारे पांव चूमती हूँ
तुम्हारी बाजुएँ अब तक कितना नाप चुकी ?
तुम्हारे नाखून थक गये हैं
इनकी सख्ती बेवजह तो नहीं
इनका टूट जाना दुःख है
तुम्हारे पोरों की छतरी हैं यह नाखून
मुझे इनसे बेहद प्यार है

तुम्हे जो शब्द भाता है
उसे नाखून में छुपा लेते हो
लिखते हो तो वोह शब्द बहने लगते हैं
दिल से साहस रिसता है संग संग

नाखून टूटना दुःख है
तुम्हारे नाखून तुम्हारी यात्रा के स्तम्भ है
इनकी सख्ती तुम्हारे सबसे करीब शब्दों का कवच है
तुम्हारे नाखून तुम्हारे दिल से भी कोमल हैं

अपने पांव से कह दो के धरती अहिस्ता नापे
और बाजुएँ ध्यान से आकाश घेरें
मुझे तुम्हारे नाखूनों से बेहद प्यार है

04. 
 
तुम विराट के प्रेमी
मैं डिबिया की दीवानी
तुम नौका विहारी
मैं अपने लम्बे केशों से परेशान
तुम बनों के देवता
मैं आंगन की बेल
तुम ऋतूओं के सैलानी
मैं अक्षय कार्तिक की प्रभात
तुम इन्दधनुष धनी
मुझे पायल की दरकार

तुम ख्वाब का सौन्दर्य हो
मैं नियति की हरारत
मुझे देखा तुमने
और देखे नाचते हुए मोर
मैंने देखा तुम्हे
और प्रेम बिच्छुआ
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* (चित्र कृति : पेट मैग्युकिन की पेंटिंग, साभार)