गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

स्वप्न , यथार्थ और कविता का गेंदा फूल

'शीतल वाणी'  पत्रिका का उदय प्रकाश पर केन्द्रित विशेष अंक किसी तरह डाक की सेवा में घूमता - भटकता -अटकता हुआ मिल (ही) गया। मँझोली मोटाई के सफेद धागे से बँधा लिफाफा बुरी तरह फटा हुआ था । बस किसी तरह इस नाचीज का नाम व पता बचा रह गया था। अभी इसे उलट - पुलट कर देख सका हूँ। ठीकठाक तरीके से  पढ़ा जाना बाकी है  बेटे अंचल को इसका आवरण इतना अच्छा लगा कि उसने मेरे मोबाइल से इसकी फोटो उतार ली। वह आवरण चित्र  साझा है।  पहली नजर में यह अंक विशिष्ट लग  रहा है....बधाई 'शीतल वाणी' की पूरी टीम को। इस विशिष्ट अंक में एक साधारण - सी बात यह है इसमे मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है। इसे भी सबके साथ साझा करते हैं...


स्वप्न , यथार्थ और कविता का गेंदा फूल
                                                  सिद्धेश्वर सिंह

गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं

यह 'तिब्बत' कविता का एक अंश है। इसी कविता पर उदय प्रकाश को १९८१ का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इस कविता पर केदारनाथ सिंह का निर्णायक मत है - 'तिब्बत कविता में एक खास किस्म की नवीनता है। हमारे समय की वास्तविकता का जो पहलू इस कविता में उभरा है, वह पहले कभी नहीं पाया गया। कलात्मक प्रौढ़ता और ताजगी के अतिरिक्त इसमें एक खास तरह का अनुशासन भी है। राजनीतिक विषय पर राजनीतिक ढंग से अभिव्यक्ति का कौशल उदय प्रकाश की विशेषता है। इस कविता में तिब्बत का बार - बर दोहराना मंत्र जैसा प्रभाव पैदा करता है।' इस कविता ने उदय प्रकाश को कीर्ति और यश दिया और वे आज हिन्दी कविता के उर्वर प्रदेश में सर्वाधिक चर्चित - प्रतिष्ठित कवि हैं और निरन्तर नया रच रहे हैं जिससे हमरे समय व समाज की तस्वीर विविधवर्णी छवियों के साथ  विद्यमान हो रही है। यह सवाल अक्सर उठता है कि उदय प्रकाश कवि के रूप में बड़े हैं अथवा एक कथाकार के रूप में उनकी विशिष्ट जगह है। उदय प्रकाश  स्वयं को कवि मानते हैं , मूलत: कवि। उनका मानना है कि ' कविता की सत्ता तमाम बाहरी सत्ताओं का विरोध करती है। वह बहुत गहरे और प्राचीन अर्थों में नैतिक होती है।' यहाँ पर एक बार फिर 'तिब्बत' कविता के आखिरे हिस्से के याद करते हैं जो कविता की सार्वदेशिकता और सर्वकालिकता पर  सवाल करती है , संशय की ओर संकेत करती है -

क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं पापा ?

कविता का कम सवाल खड़े करना है, हर किस्म का सवाल हर किस्म का संशय और यह सब कुछ जिस माध्यम में घटित होता है वह भाषा है। भाषा मनुष्य जगत के  विकास की समसे जीवंत निशानदेही है। उसी में सबकुछ घटित होता है और उसी में सबकुछ खत्म। उसी में कुछ बचता है और उसी में भविष्य की निर्मिति होती है। हमरा होना भाषा में है और हममे ही विद्यमान रहती है भाषा। कवि का काम भाषा के भीतर उतर कर एक ऐसे संसार का निर्माण करना होता है जो हमें अपनी - सी तो लगे ही दूसरों की बात भी उसमें ध्वनित हो साथ दिक्कल में वह स्थायी होने के जादू का निर्माण करे और जादू जादुई भी लगे और वास्तविक यथार्थ भी। आज की कविता को इस नजरिए से देखने पर कवि उदय प्रकाश के  महत्व बोध होता है और उनका यह कहना सही लगता है कि 'लेखक भाषा का अदिवासी है।' साहित्य अकादेमी द्वारा ‘मोहन दास’ को दिये गये पुरस्कार को स्वीकार करते हुए  उन्होम्ने कहा था - 'आज इतने वर्षों के बाद भी मुझे लगता है कि मैं इस भाषा, जो कि हिंदी है, के भीतर, रहते-लिखते हुए, वही काम अब भी निरंतर कर रहा हूं। जब कि जिन्हें इस काम को भाषेतर या व्यावहारिक सामाजिक धरातल पर संगठित और सामूहिक तरीके से करना था, उसे उन्होंने तज दिया है। इसके लिए दोषी किसी को ठहराना सही नहीं होगा। वह समूची सभ्यता का आकस्मिक स्तब्धकारी बदलाव था। मनुष्यता के प्रति प्रतिज्ञाओं से विचलन की यह परिघटना संभवतः पूंजी और तकनीक की ताकत से  अनुचर बना डाली गई सभ्यता का छल था। मुझे ऐसा लगता है कि इतिहास में कई-कई बार ऐसा हुआ है कि सबसे आखीर में, जब सारा शोर, नाट्य और प्रपंच अपना अर्थ और अपनी विश्वसनीयता खो देता है, तब हमेशा इस सबसे दूर खड़ा, अपने निर्वासन, दंड, अवमानना और असुरक्षा में घिरा वह अकेला कोई लेखक ही होता है, जो करुणा, नैतिकता और न्याय के पक्ष में किसी एकालाप या स्वगत में बोलता रहता है या कागज़ पर कुछ लिखता रहता है।'

इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसी नदी या नक्षत्र
पवन या पहाड़  पेड़ या पखेरू  पीर या फ़कीर की
भाषा क्या है ?

एक पाठक की हैसियत से बार - बार सोचना पड़ता है कि उदय प्रकाश की कविताओं में ऐसा क्या है जो उन्हें हमारे समय का एक जरूरी कवि बनाता है।वह ऐसा क्या कहते हैं वे अपने शब्दों के माध्यम से कि  रोजाना देखी , सुनी, समझी और बरती जा रही चीजें नए तरीके से दिखाई देते हैं या नए तरीके से देखे जाने की माँग करने लगती हैं। उनकी कविताओं में वही दुनिया है जो हमारे आसपास की दुनिया है। इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कवि के शब्दों से रचा गया संसार कोई दूसरा संसार नहीं होता बल्कि कवि की दुनियावी आँख चीजों के होने व न होने को इस दुनिया के बाहर और परे भी देख लेने में सक्षम होती है। यही एक प्रकार से कविता की सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता है। उदय प्रकाश के शुरूआती संग्रह 'अबूतर कबूतर'  में अपेक्षाकृत छॊटे कलेवर की कवितायें है जिनमें बहुत कम शब्दों में एक विचार प्रकट होता है और सीधे - सीधे अपनी बात रखता है उदाहरण के लिए 'डाकिया' , 'वसंत' , 'पिंजड़ा' , ,'दिल्ली' जैसी कविताओं में विचार की इकहरी सरणि है जो  बहुत कम शब्दों में कहने की पूर्णता को प्राप्त करती है। इस प्रसंग में 'तिब्बत' के महत्व पर बात करने का मन इसलिए हो आता है कि यह कविता शब्दों की मितव्ययिता का बहुत अच्छा उदाहरंअ है।कविता के केन्द्र में 'तिब्बत' है जो  किसी स्थान का बोध कराने की बजाय एक विचार या स्वप्न का बोध कराता है। यह एक ऐसा विचार या स्वप्न है जो जो भाषा में व्यक्त करने बाद भी कुछ न कुछ छूट जाता है संभवत: इसी बात को ध्यान में रखकर कवि एक बच्चे के प्रश्न के माध्यम से तिब्बत के प्रश्न को प्रश्न की तरह ही उपस्थित करता है -

क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं
पापा ?

दुनिया में सब जगह एक तरह का ही रोना है और एक तरह का ही हँसना। मानवीय सोच और उसका प्रकटीकरण सब जगह एक जैसा ही है। यह अलग बात है कि दुनिया में ढेर सारी अलग - अलग भाषायें है , अलग - अलग भूगोल में बोली जाने वाली और अलग - अलग पारिस्थितिकी निर्मित तथा निरन्तर निर्माणशील फिर भी विचार , स्वप्न और यथार्थ सब जगह एक जैसा ही है।एक बड़े कवि की पहचान यह है कि वह समय और स्थान के सीमान्त में भी रहे और  उसका अतिक्रमण भी करे। इस बिन्दु पर सबसे बड़ी सावधानी यह होती है ऐसा करते हुए  कविता इतनी 'लोकल' न हो जाय कि दूसरे भूगोल में वह अपरिचित  व अन्य या इतर लगे और न ही इतनी 'ग्लोबल' हो जाय कि किसी भी किस्म की स्थानिकता या स्थानिक पहचान से निरपेक्ष होकर किसी दूसरी ही दुनिया की चीज लगने लगे। यहाँ पर एक बार फिर 'तिब्बत' को याद किया जा सकता है। पहली दृष्टि में या ऊपरी तौर पर इस कविता में 'तिब्बत' एक भूगोल की तरह उपस्थित होता है, एक ऐसा भूगोल जो एक ही समय में  इतिहास में भी है और उसके बाहर भी लेकिन गैसे - जैसे हम हम कविता के भीतर उतरते जाते हैं वैसे - वैसे  'तिब्बत' एक आंकाक्षा , एक स्वप्न के रूप में रूपायित होता जाता है। यह धिइरे - धीरे एक ऐसे स्वप्न का रूप धारण कर लेता है जो इतिह्गास और भूगोल की सीमाओं में बाहर जाकर मनुष्य मात्र की स्मृति ,आकांक्षा, स्वतंत्रता और स्वप्न का प्रतीक बन जाता है। इस कविता में आया गेंदे का फूल बहुत गहरी अर्थवता रखता है। वह एक साथ स्वप्न और यथार्थ दोनो लोकों में विद्यमान रहता है और आकाक्षा की असीमितता और अनंतता को प्रकट करते हे कहता है -

गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं
पापा ?

हम समय के जिस हिस्से में रहते हैं  वहाँ चीजें इकहरी नहीं हैं, सब एक दूसरे में गुंफित और एक दूसरे को बनाती - बिगाड़ती हुई।जिस तरह गेंदे के एक फूल में बहुत सारे फूल होते हैं उसी तरह उदय प्रकाश की कविता में कई कवितायें दिखाई देती हैं। जब वह 'वसंत' की बात कर रहे होते हैं तब वह केवल वसंत नहीं होता। इसी तरह 'दिल्ली' केवल दिल्ली नहीं होती और न ही 'कुतुबमीनार' केवल कुतुबमीनार।'तिब्बत' के संदर्भ में भी निस्संकोच यही कहा जा सकता है कि तिब्बत केवल तिब्बत  नहीं है। कलेवर  में एक छोटी - सी लगने वाली यह कविता सचमुच बहुत बड़ी कविता है। यह आज से तीस - बत्तीस साल पहले जब आई थी तब दुनिया इतनी 'छोटी'  नहीं थी। दुनिया को देखने के नजरिए भी इतने छोटे नहीं थे।आज की तरह सब कुछ तात्कालिकता की त्वरा से से तय नहीं होता था और सबसे बड़ी बात यह कि प्रयत्न , प्रयास , प्रतिरोध और परिवर्तन जैसे शब्दों के प्रति  'पवित्रता' का भाव तिरोहित  में कहीं न कहीं संकोच व झिझक बची हुई थी। आज के संसार पर बात करते हुए उदय प्रकाश कहते हैं - ' लेकिन आज के समय में, धरती का कोई छोर, कोई कोना, कोई जंगल, कोई पहाड़ तक ऐसा निरापद नहीं रहने दिया गया हैं, जिसमें सत्ता और उपभोग, वैभव और लोभ से निस्संग कोई नागरिक कहीं रह-बस सके. आज के मामूली मनुष्य का हर ठिकाना, हर मकान, हर घर आज उजाड़ दिए जाने के कगार पर हैं. उस पर चौतरफा हमले हैं.' सवाल उठता है कि मानवता पर लगातार हो रहे इस चौतरफा हमले वाले देश - काल में साहित्य या कविता की क्या भूमिका है? क्या वह  शरण्य है, क्या वह लेखक का घर है , क्या भाषा की चारदीवारी में सिमटी एक 'दूसरी' दुनिया है? उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ते हुए  बार - बार लगता है कि उनकी कवितायें मनुष्य के अस्तित्व के सचमुच होने की  वकालत करती हैं और इस रास्ते में निरन्तर बढ़ते जा रहे संकटों की ओर इशारा करती हैं।उनका यह इशारा बहुत  'लाउड' नहीं है और न ही इतना मद्धिम भी कि शोर और सन्नाटे में अपनी उपस्थिति दर्ज न करा सके मसलन  'एक भाषा हुआ करती है' कविता की में वह  जब वह नाना प्रकार के प्रसंगों और संदर्भों के जरिए हमारे समकाल का एक विशद चित्रण प्रस्तुत करते हैं तब बार - बार भाषा की  ओर लौटते हैं , उसके होने को रेखांकित करते हैं और भाषा की स्थानिक चौहद्दी से बाहर जाकर वैश्विक हो जाते हैं -

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं `आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

उदय प्रकाश की कवितायें वे कवितायें हैं जो हिन्दी कविता  के प्रदेश को और उर्वर बनाती हैं।इस भूमि की उर्वरा को बनाने - बचाने - बढ़ाने की दिशा में  सार्थक हस्तक्षेप करती हैं।साथ ही कविता को नितान्त निजता , विचार के इकहरेपन और अस्थिर उपस्थिति से मुक्ति का उदाहरण भी  प्रस्तुत करती हैं। वे बहुत साफगोई से किन्तु भाषा की  गूढ़ - गझिन कताई - बुनाई से  स्वयं तो दूर रहती ही हैं और अपने पाठक के मन:संसार को भी सीमित और तात्कालिक  होने की सरलता  से मुक्त करती हैं।जिस तरह 'तिब्बत'  कविता में लामा मंत्र नहीं पढ़ते , फुसफुसाते हैं - तिब्बत..तिब्बत वैसे ही उदय प्रकाश की कवितायें हमारे मन के कोने आँतरों में  फुसफुसाती हैं कविता ..कविता और हमें अपने समय तथा समाज के स्वप्न  व यथार्थ को देखने - समझने की एक  खिड़की खुलती दिखाई देने लगती देती है।
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'शीतल वाणी': संपादक:  डॉ वीरेन्द्र आजम सम्पादक शीतल वाणी , 2C / 755 पत्रकार लेन प्रद्युमन नगर मल्हीपुर रोड सहारनपुर 247001 (u p ) मोबाइल नंबर 09412131404/इस अंक का मूल्य : 100 रुपये

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

अपनी जमीन का अँधेरा और रोशनी का आसमान

लगभग हर लिखने - पढ़ने वाले  व्यक्ति के  लिए  में डाक में पत्र - पत्रिकाओं का गुम जाना एक दुखदायी प्रसंग है।विचार और संस्कृति का मासिक 'समयांतर' के अक्टूबर 2012 अंक में जगदीश  चन्द्र रचनावली की मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा प्रकाशित हुई थी किन्तु वह अंक अब तक नहीं पहुँचा है।लेखकीय प्रति जरूर मेरे लिए भेजी गई होगी किन्तु उसका पाठक कोई और हो गया (होगा)। बहरहाल , यह अंक किसी अन्य स्रोत से आ ही गया है। आज साझा है वह समीक्षा :


अपनी जमीन का अँधेरा और रोशनी का आसमान

* सिद्धेश्वर सिंह

जगदीश चन्द्र रचनावली ( चार खण्ड) : संपादक - विनोद शाही; आधार प्रकाशन; पृ.:  2451    ; मूल्य : रू. : 4000 / ISBN : 978-81-7675-315-9

हिन्दी कथा साहित्य में दलित चेतना के उपन्यासों 'धरती धन न अपना' , 'नरककुण्ड में बास' और 'जमीन तो अपनी थी'  की ट्रिलोजी के जरिए अत्यधिक  ख्याति अर्जित करने वाले रचनाकार जगदीश चन्द्र की रचनावली प्रकाशित होकर हिन्दी की दुनिया में आई है जो यह बताती है कि  हमारे समय  के इस बड़े रचनाकार की दुनिया कितनी बड़ी है और संसार के जिस हिस्से को वह अपनी कथाभूमि बनाता है वह इसी संसार  के हम सब वासियों के लिए एक तरह की 'वो दुनिया' नहीं बल्कि वह दुनिया है जो  यह बताती है कि मनुष्य और उसकी संवेदना सब जगह एक समान,  एक जैसी ही है। यहाँ  सब कुछ सहज और साझा है  बस जरूरत इतनी है कोई उसे हमारे समक्ष  इस तरह प्रस्तुत कर दे कि वह  अपनी - सी लगने लग जाय। हिन्दी के पाठकीय संसार में  कथालेखक जगदीश चन्द्र की उपन्यास त्रयी को आदर , सम्मान और विपुल पाठकवर्ग इसलिए मिला कि  हिन्दी की पाठक  बिरादरी के एक बहुत बड़े हिस्से ने उन रचनाओं  के जरिए अपनी पाठकीय समझ को विकसित  किया है जो इस महादेश की  अपनी जमीन से जुड़ी हुई रचनायें है और किसी खास कथाकृति में खास लोकेल होने के बावजूद  यह बताने में सहज ही सक्षम रही हैं कि मनुष्य की संवेदना  का जो भी इतिहास व भूगोल होता है वह अंतत: सार्वकालिक - सार्वजनीन नागरिकशास्त्र में  में ही विकसित होता है। हम  जब कई लेखकों की कई रचनायें पढ़ते हैं तो चमत्कृत होते हैं कि जैसा एक जगह है लगभग वैसा ही दूसरी जगह विद्यमान है। यह एक चमत्कार होता है ; कागज पर शब्दों की ताकत से रचा गया ऐसा  चमत्कार जो जितना साधारण होता है उसकी विशिष्टता उतनी ही बड़ी और विलक्षण लगती है। जगदीश चन्द्र की रचनाओं , खासतौर पर उनकी त्रयी के बारे में बात करते हुए  यह बात बार - बार और पूरी स्पष्टता के साथ कही जा सकती है कि प्रेमचंद के  'गोदान' , रेणु के  ' मैला आँचल' , भीष्म साहनी के 'मय्यादास की माड़ी' , राही मासूम रज़ा के 'आधा गाँव', श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी'  और विवेकी राय के ' सोना माटी' जैसे उपन्यासों की निरन्तरता में ही नहीं बल्कि  गुरदयाल सिंह के 'मढ़ी दा दीवा' ,  राजेन्द्र सिंह बेदी के 'एक चादर मैली सी' और कृष्णा सोबती के 'जिन्दगीनामा' तथा मुल्कराज आनंद  के 'अनटचेबल' और 'अक्रास द बलैक वाटर्स' के साथ मिलकर  मनुष्य के राग विराग और  उत्थान पतन की गाथा को  को देखने , परखने और समय पड़ने उस समय के माध्यम से अपने समय को देखने की दृष्टि हासिल करने के क्रम में जगदीश चन्द्र का कथा सहित्य वास्तव में  बड़े काम की बड़ी चीज है।

रचनावलियों की उपयोगिता इसी अर्थ में अधिक रेखांकित करने योग्य होती है कि वह समग्रता को समेटकर कर  सहज व सुलभ व संग्रहणीय बनाती है। इस रचनावली के ढाई हजार पृष्ठों में फैली सामग्री जगदीश चंद्र के लेखन की  दुनिया के विस्तार को एक ही जगह पर एकत्र कर प्रस्तुत करती है। यह इस बात को भी बताती है कि 'त्रयी' के आगे पीछे भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे देखा और दिखाया जाना चाहिए। यह सच है कि हर बड़े लेखक को बड़ा बनाने वाली उसकी सारी  रचनायें नहीं होतीं। संख्या व परिमाण में कुछ ही रचनायें होती हैं जो किसी लेखक के बड़ेपन को आधार देती हैं लेकिन इसके साथ ही ऐसा भी होता है कि 'बड़ी' रचनाओं के बाद आने वाली रचनायें प्राय:  एक तरह की  बड़ी छाया का शिकार भी हो जाती हैं । यह किसी लेखक की कमजोरी या कमी नहीं होती ; हाँ, उस पर 'और बड़ा' रचने का दबाव जरूर होता है लेकिन पाठकीय संसार में स्थिरता व पिछली रचना के आलोक में नई रचना को देखे जाने की उम्मीद कहीं न कहीं, कभी न कभी बाधक जरूर बनती है। इसी संदर्भ में  यह बात भी कही जा सकती है कि प्रसिद्धि व ख्याति प्राप्त कर लेने के बाद  जहाँ एक ओर किसी रचनाकार का  पाठकवर्ग विस्तार को प्राप्त करता है वहीं दूसरी ओर ऐसा भी होता है उसका एक  'फेक' पाठकवर्ग( !) भी निर्मित हो जाता है जो साहित्येतर साहित्यिक कही जाने वाली  चर्चाओं और शोध व आलोचना की संकुचित तथा अतिरंजित दोनो तरह की स्थितियों को जन्म देता है । इससे ऊपरी तौर किसी रचनाकार को लाभ यह होता है कि व चर्चा - परिचर्चा - अध्ययन- अध्यापन- शोध की दुनिया में मशहूरियत तो हासिल कर लेता है लेकिन वह चीज जो उसे समय व स्थान के पार दूर तक; कालजयिता को ले जाने वाली होती है ; कहीं न कहीं संभवत: पीछे गुम होकर रह जाती है। 

जगदीश चन्द्र रचनावली के पहले खंड में दलित चेतना की उपन्यास त्रयी है। यह कथानायक  काली की कथा तो है ही काली व उसके सर्जक जगदीश चन्द्र  के काल की कथा भी है। यह काली और उस जैसे तमाम पात्रों   के साथ काली को काली बनाए रखने के षडयंत्र में लगे तमाम पात्रों की कथा भी है। इसी में अपनी जमीन के खुरदरेपन में अंकुरित होते स्वप्न का स्वर्ग है और इसी में में गाँव , चमादड़ी , कस्बा और शहर के बीच की वह दुनिया भी है जिसमें अंत:  " काली को विश्वास हो  जाता है  कि 'ज्ञान उसके अधिकार से पूरी तरह से बाहर हो गया है और जहाँ अधिकार नहीं वहाँ सम्मान भी नहीं और ऐसे स्थान पर आदमी का जीवन कीड़े मकोड़े से भी नीच होता है।' हिन्दी कथा साहित्य में  बहुत से ऐसे चरित्र गढ़े गए हैं जिनका नामोल्लेख  एक तरह से किसी कथा संसार  का  लगभग पर्याय बन जाता है। निश्चित रूप से काली एक ऐसा ही जीवन्त  पात्र है जो गोदान के होरी की तरह  तो है ही वह एक तरह से होरी  को उस दुनिया में रूपायित करने वाला पात्र है जो 'गोदान'  का परवर्ती संसार है इसमें जहाँ एक ओर चमादड़ी है वहीं दूसरी ओर कस्बे की  कोठड़ी और शहर चमड़े के कारखाने कच्ची पक्की  खाल की निशानियाँ। यह एक ऐसा संसार है जो हिन्दी की पाठक बिरादरी को पंजाब की कथाभूमि से परिचित  तो कराता है किन्तु किसी काल विशेष व आंचलिकता के दायरे में  आबद्ध न होकर मनुष्यता की दुर्दम्य  जिजीविषा का  अविस्मरणीय दस्तावेज बन जाता है।

रचनावली के दूसरे खंड में चार उपन्यास हैं जिनमें 'कभी न छोड़ें खेत' ,'मुठ्ठी भर कांकर' ,'घास गोदाम' और अधूरा उपन्यास  'शताब्दियों का दर्द'  सम्मलित है। ये तीनो उपन्यास भी एक तरह से उनकी त्रयी के विस्तार ही हैं। इनमें भी  उसी भूगोल का इतिहास और समाज है जिसके लिए जगदीश चन्द्र  हिन्दी कथा साहित्य के इतिहास में जाने जाते हैं और जाने जाते रहेंगे। तीसरे खंड को संपादक ने युद्ध और शान्ति के उपन्यासों का खंड कहा है। इसमें  तीन उपन्यास 'आधा पुल' , 'टुण्डा लाट' और 'लाट की वापसी' संकलित हैं। पहली दृष्टि में  इन्हें फौजी जिन्दगी के उपन्यास कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें  सैनिक - अफसर हैं। युद्ध के मोर्चे की रोमांचक स्थितियाँ हैं । आमने - सामने अपनी और दुश्मन की फौजें हैं । 'युद्ध में जान की बाजी  लगाकर अपने साहस और शौर्य का परिचय देते नौजवान हैं और फिर अपंग होकर लौटते हुए सैनिकों का जीवन है और समाज के दूसरे मोर्चों पर एक और तरह की जद्दोजहद में कूद पड़ना भी  है।' फिर  भी समग्रता में यह कैप्टन इलावत और कैप्टन सुनील कपूर की निजी कथा न होकर मनुष्य और मनुष्यता के जंग की अविराम कथा है। रचनावली  का  चौथा और अंतिम खंड विविधतापूर्ण रचनाओं का संकलन है। इसमें जगदीश चन्द्र का पहला उपन्यास 'यादों के पहाड़' और एकमात्र कहानी संग्रह 'पहली रपट' का महत्व इसलिए अधिक है कि पहले उपन्यास के माध्यम से लेखक की रचनाशीलता के उत्तरोत्तर विकास  को देखा जा सकता है और कुळ पन्द्रह  कहानियों के माध्यम के कथ्य व कथाभूमि के वैविध्य के साथ इनमें उनके उपन्यासों के बीज और अंकुर भी तलाशे जा सकते हैं। चौथे खंड में  ही 'आपरेशन ब्लू स्टार' जैसा उपन्यास है जो उपन्यासऔर रिपोर्ताज  का रिमिक्स है। यह  कथाकार जगदीश चन्द्र और रिपोर्टर जे० सी० वैद्य की  एक तरह से साझी कृति है जो गहन शोध और फील्ड रिपोर्टिंग के उपरान्त  लिखी गई है। यह हमारे समकालीन इतिहास को कुरेदने वाली एक ऐसी रचना है जिसका पुनर्पाठ और मूल्यांकन निश्चित रूप से एक  बहुत बड़ी आवश्यकता है और इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इस खंड के आरंभ में प्रकाशित संपादक  विनोद शाही  की भूमिका 'राजनीतिक चेतना वाली रचनाशीलता का मतलब'  के हवाले से पता चलता है कि जगदीश चन्द्र पंजाब के आतंकवाद   के सांस्कृतिक इतिहास पर एक उपन्यास 'शतब्दियों का दर्द' लिख रहे थे जो उनके निधन के कारण पूरा न हो सका। अच्छा होता कि रचनावली में  उसको, अपूर्णता में ही सही दिया जाना चाहिए था। इसी खंड में लेखक का एकमात्र अप्रकाशित नाटक  'नेता का जन्म' शामिल किया गया है जो एक प्रसिद्ध कथाकार के नाटककार रूप से परिचय कराता है। अपने कथानक की दृष्टि से तो वह मौजूं और प्रसंगिक तो है ही। चौथे खंड के परिशिष्ट के रूप में चित्रावली व जीवनी - संस्मरण भी है जिनसे हमारे समय के इस बड़े रचनाकार के जीवन की  विविध छवियों और उसकी सोच व रचनाप्रक्रिया का साक्षात्कार किया जा सकता है। 

आधार प्रकाशन की प्रस्तुति  जगदीश चन्द्र रचनावली का प्रकाशन  स्वागत योग्य है। इस संदर्भ में दोबारा यह भी स्मरण किया जाना चाहिए कि उपन्यासकार  जगदीश के रचनाकर्म के  मर्म को समझने के लिए चमन लाल  के संपादन में  'जगदीश चन्द्र : दलित जीवन के उपन्यासकार' शीर्षक  पुस्तक भी  2010  में आधार ने ही प्रकाशित की है  और अब  रचनावली  का प्रकाशन हिन्दी कथा साहित्य के उन पाठकों के लिए  महत्वपूर्ण है जो धरती से गहरे तक जुड़े  और आमजन की सोच -  समझ - संवेदना  को वाणी देने वाले इस  बड़े रचनाकार को समग्रता में पढ़ना- पहचानना चाहते हैं तथा परिवर्तित समय में नए पाठ के आकांक्षी है।  नए पाठ की बात यदि न भी हो तो  भी  पाठक के के लिए उसमे कभी न खत्म होने वाला कथा रस  और इस बात का प्रमाण कि कथा साहित्य को कैसा होना चाहिए ; यह तो है ही। साहित्य , समाज विज्ञान और समकालीन इतिहास के शोधार्थियों और अध्येताओं के लिए यह स्वातंत्रोत्तर समय , समाज और साहित्य को समझने - बूझने का जरूरी उपकरण तो  अवश्य ही है। साथ ही किसी को कथाकृति को लिखने के की जाने वाली गहन खोजबीन और उसके लोकेल तथा लोक से आत्मीय जुड़ाव की दृष्टि  का प्रकटीकरण भी यह रचनावली उपल्ब्ध कराती है। अंत में एक महत्वपूर्ण बात ,  और वह यह कि हिन्दी में जगदीश चन्द्र की जो लेखकीय छवि  निर्मित हुई  है उसे मजबूत करने के साथ यह बात भी इस रचनावली के माध्यम से पूरी शिद्दत के सामने आती है वह यह कि  त्रयी के अतिरिक्त भी उनका विपुल और विविधवर्णी रचना संसार है जो मूल्यांकन और नए पाठ की माँग करता है। रचवाली में प्रूफ़ की कुछ गलतियाँ रह गई हैं जिन्हें आगे अवश्य सुधारा जाना चाहिए औरआमजन की बात करने - कहने वाले लेखक की  रचनावली का  आम पाठक के लिए पेपरबैक संस्करण  उपल्ब्ध करवाने की जरूरत तो है ही।


गुरुवार, 29 नवंबर 2012

कुछ खास है यहाँ आज शायद...

नवंबर के बीतते महीने का आज का दिन + यह रात (भी )। आज ठंड थोड़ी कम -सी है। ऊपर असमान में देखा तो पता चला कि  हल्के बादल छाए  हुए हैं  और उनके बीच से  इक्का - दुक्का सितारे  भी झाँकने की कोशिश कर रहे रहे है। अभी कुछ ही देर पहले बूँदाबाँदी  भी होकर चुकी है। बाहर रात, ठंड और ओस के अतिरिक्त भी  आर्द्रता की पर्याप्त उपस्थिति है। और अंदर कमरे में लगभग एक सप्ताह पहले  आधा पढ़ कर रख दी गई  कविता की किताब में  बुकमार्क की शक्ल में एक कागज मिला है जिस पर एक कविता  लिखी है स्वयं की , स्वयं की  टेढ़ी - मेढ़ी लिखावट में। उस  छोटे- से कागज पर जो कुछ भी स्याही और कलम के माध्यम से अभिव्यक्त  हुआ है वही अब  मशीन पर टाइप होकर आपके  समक्ष प्रस्तुत है। तो आइए , साझा करते हैं  आज अपनी इस ताजा कविता को.... 


कविता की किताब

ऊँचे आकाश में पींग भरती पतंग
बार - बार झुक रही है घर की ओर

खिड़की की जाली पर
ठोर रगड़ रही है एक नीली चिड़िया

पीपल का एक हरा पता
चक्कर काटते काटते
गिर कर थम गया है गेट के आसपास

अभी तक जाग रही है
सुबह जलाई गई अगरबती की सुवास

रह - रह कर सिहर रहे हैं
खिड़की दरवाजों के परदे

गमले में खिल गया है
अधखिला लाल फूल

कुछ खास है यहाँ आज शायद...!

ओह , मेज पर खुली पड़ी है कविता की किताब
और मोबाइल में अवतरित हुआ है
तुम्हारा टटका - सा एस.एम.एस. ।


रविवार, 25 नवंबर 2012

चालीस की उम्र में 'स्केचबुक'

विश्व कविता के अनुवादों  के अध्ययन -पठन व  साझेदारी के जारी क्रम में आज यह सूचना साझा करने  का मन है कि 'कल के लिए' पत्रिका के नए अंक में मिस्र की युवा कवयित्री  फातिमा नावूत की तीन कवितायें ( 'जब मैं कोई देवी बनूँगी' ,'स्केचबुक' और 'तुम्हारा नाम रेचल कोरी है' ) प्रकाशित हुई हैं। इन कविताओं का अनुवाद करते हुए मैंने सुन्दर , सहज व सुघड़ कविता के साहचर्य व आस्वाद का अनुभव किया है। उम्मीद है कि विश्व कविता की व्यापकता व गहराई को अनुवादों की दुनिया के माध्यम से  पढ़ने , परखने तथा पहचानने वाले प्रेमियों को भी ये अच्छी लगेंगीं। आज प्रस्तुत है इस कविता त्रयी में से एक कविता 'स्केचबुक'....। बाकी दो कविताओं के लिए  'कल के लिए' के अद्यतन अंक को देखा जा सकता है....


फातिमा नावूत की कविता
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

स्केचबुक

चालीस की उम्र में
औरतों के बैग  थोड़े बड़े हो जाते हैं
ताकि उनमें अँट सकें
ब्लड प्रेशर की गोलियाँ और मिठास के डल्ले ।
नजर को ठीक करने के वास्ते
चश्मे भी
ताकि चालाक अक्षरों को पढ़ा जा सके इत्मिनान से ।

बैग की चोर जेब में
वे रखती हैं जरूरी टिकटें तथा कागजात
और ग्रहण के दौरान                                                                            
हिचकी की रोकथाम करने का नुस्खा भी।
वे रखती हैं एक अदद मोमबत्ती
क्योंकि आग से दूर भागते हैं पिशाच                                    
जो रात में चुपके से आकर                                 
रेत देते है औरतों की गर्दनें ।

वे बैग में रखती हैं वसीयतनामा :
मेरे पास हैं 'रंगों के निशान'
( जो हाथों में आकर अटक जाते हैं
जब कोई तितली इन पर बैठ जाती है )
मेरे पास है  एक स्केचबुक
और एक ब्रश
- एक अकेली औरत की तरह -
जिसे सौंपती हूँ मैं अपने मुल्क को ।

चालीस की उम्र में
मोजों से झाँकने लगते हैं घठ्ठे
और जब शुक्रवार की रात को
तितलियाँ छोड़ देती हैं इस घर का बसेरा
तब हृदय हो जाता है किसी खाली बरतन की मानिन्द
वे कहाँ जाती होंगी भला ?
शायद राजधानी के पूरबी छोर पर रहने वाली
किसी अच्छी मामी, चाची, फूफी, मौसी के कंधों पर
जमाती होंगीं अपना डेरा ।
एक ..दो ..तीन ..चार ..पाँच  ..छह..
छह रातें..
एक चुप , उदास औरत
अपनी बालकनी में बैठकर
तितलियों की वापसी का करती है इंतजार ।

चालीस की उम्र में
एक औरत बताती है अपनी पड़ोसन को
कि मेरा एक बेटा है
जिसे नापसंद  है बोलना - बतियाना ।

इससे पहले कि वह कहे -
अम्मी , तुम जाओ
अब मैं ठीक हूँ
अब मैं बड़ा हो गया हूँ..
.....हे ईश्वर ! मुझे थोड़ा वक्त तो दो खुद के वास्ते ।
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( चित्रकृति : लौरी पेस की पेंटिंग 'एग्जॉस्टेड वुमन' / गूगल छवि से साभार)

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

भास , आभास और सोच की कुछ बेतरतीब सतरें


बीत गई अब दीपावली। आज छत से  पटाखों के खुक्खल और बुझे दिए समेट  दिए गए। मोमबत्तियों की खुरचन बुहार कर फेंक दी गई। धनतेरस से शुरु हुआ उत्सव का राग अब लगभग  समापन के विराग की ओर अग्रसर है।  पता नहीं क्यों  मुझे  अक्सर समापन से अधिक उपयुक्त और सही शब्द  संपन्नता लगता है , कल्मीनेशन। लेकिन फिर सोचता हूँ कि किस बात की संपन्नता ? क्या स्मृति के कोठार में संचित अतीत के 'रास'  की संपन्नता ? एक तरह का निजी  स्मृति लेखा , स्वरचित स्मृति राग , नानस्टाप  नास्टैल्जिया या निरंतर नराई ?  गोधन बीता, आज भैया दूज बीत रही है। इसके बाद पिड़िया पारने - सिराने  और कुछ दिन बाद डाला छठ के साथ त्योहारों  की इस मौसमी खेप का  एक अल्पविराम आने वाला है। आज कंप्यूटर पर कुंजीपटल  से उंगलियों  जुगलबंदी करते हुए त्योहारों के ये सब  जितने भी नाम  याद कर लिख रहा हूँ  लगता है कि वे  आज  केवल लिखने भर  के लिए ही  रह गए हैं शायद ! एक तरह से स्मृति के बही खाते का एक  इंदराज ; समय के अनंत सफे पर पर्व की एक प्रविष्टि मात्र !

अभी कुछ देर पहले कस्बे के बाजार की ओर गया खरीददारी के लिए जाना हुआ था। रास्ते में पश्चिम के आकाश में क्षितिज से कुछ ही हाथ ऊपर द्वितीया का चाँद दिखाई दे रहा था , एक सुनहरे चमकदार हँसिए की तरह का सुंदर  अकेला चाँद। कल्पना करता हूँ शायद इसी हँसिए से काटी जाती होगी  व्योम के विस्तीर्ण खेतों की फसल और दँवाई - गहाई के फलस्वरूप आकाश में बिखर जाता होगा होगा तारकदल रूपी अन्न का असमाप्य रास। लेकिन यह तो कल्पना है न ,  मन के दर्पण का नितांत  निजी छायावाद । ऐसा कहीं होता है क्या ! यह सब सोचना - देखना कविता में तो संभव  हो सकता है लेकिन  दैनंदिन जीवन में तो  नहीं ही। तो क्या जीवन के बाहर है कविता का जीवन या फिर कविता में जो जीवन है उसकी इस जीवन से कोई संगति- सहमति- सम्मति नहीं ?

कल का आधा से अधिक दिन  एक जीवंत नदी किनारे बीता। एक ऐसी नदी जिसका जल अब भी निर्मल है। उसके वेग में अब भी नैसर्गिक त्वरा है। उसके किनारे पर पास बसने वाले जीवन में अब भी हर चीज के लिए उत्सुकता है। राह पूछने पर अब भी बताने - पहुँचाने  का उत्साह है। नदी पर मँझोले  आकार का झूला पुल बना है , स्टील  की रस्सियों पर तना - कसा हुआ। मनुष्य के  पैरों व साइकिलों - बाइकों की आमद से जब यह डोलता है तो नीचे बहते गतिवान जल को देखकर 'झाँय' बरती है। हम पैदल चल रहे थे। इस प्रांतर में हमारे चौपहिया वाहन की समाई नहीं थी।  यह जगह ...केवल दुपहिया - चाहे मशीन या मनुष्य केलिए ही बनी थी यहाँ की धूल - कीचड़ - काँदों वाली राह। हमें नदी के साथ - साथ ही चलना था। ऐसी नदी जिसके दोनो ओर एक जैसा जंगल था , एक जैसे खेत , एक जैसी फसलें , एक जैसे गाय - गोरू और एक जैसे मनुष्य लेकिन नक्शे  में इस जगह का नाम था 'नो मैन्स लैंड'। एक ऐसी जगह  जहाँ कोई नहीं रहता किन्तु  वहाँ जीवन था, नदी की धुरी पर घूमता हुआ जीवन और एक ही छत के नीचे वास करने वाले हम चार जन थे लगभग आधा से अधिक दिन भर।

अभी  इस वक्त मैं कंप्यूटर पर कुछ  लिख रहा हूँ। पास - पहुँच  में न कागज है ,न कलम , न कार्बन। एक सोच  है जो गतिमान है और दोनो हाथों की  उंगलियाँ भी। यह लिखना भी क्या सचमुच लिखना है ? यह जो दिखाई तो देता है पर इसे छुआ नहीं जा सकता। उंगलिया कुंजीपटल पर नियंत्रित यात्रा कर  रही हैं किन्तु उनकी चाल से बनने वाली शब्दों की लकीर का बस आभास ही  किया जा सकता है। मन -  मस्तिष्क के सीपीयू में लगा प्रोसेसर एक साथ बहुत कुछ प्रोसेस कर कर रहा है - एक साथ कई- कई आयामों और विमाओं में दृश्य -अदृश्य, गोपन- अगोपन, गोचर - अगोचर। कुछ है जो  आकार ले रहा है;  कुछ है जो बन रहा है फिर कुछ है जिसके बनते ही  अधूरा, अल्प व अपूर्ण होने का भान भी  होता जा रहा  है। फिर भी एक उम्मीद है जो कहना चाहती है कि अभी जो कुछ स्मृति की नदी के तल में विद्यमान है वह कभी न कभी सतह पर जरूर आएगा। वह तो  तभी लिख लिया गया जब उसे सोचा गया। बाद का लिखना तो केवल किताबत या टंकण मात्र है। नदी कोई भी हो जल्दबाजी ठीक नहीं, वह  बहती है , वह बहेगी अपनी ही चाल में- सदानीरा , वेगवती।

अभी इस वक्त जब मैं कंप्यूटर पर कुछ  'लिख' रहा हूँ। घर अपने क्रिया व्यापार में व्यस्त है। हिमा पढ़ाई कर रही है - फिजिक्स की पढ़ाई। अंचल टीवी पर अपना पसंदीदा नेशनल ज्योग्राफिक चैनल निरख - परख  रहा है और शैल रसोईघर में दीवाली के दिन के  शेष सूरन की तरकारी बनाने के काम में व्यस्त है। एक तरह से देखा जाय  तो कहा जा सकता है कि  सब अपने - अपने काम में लगे  हैं। यह एक साधारण दृश्य है। पीछे आंगन में  फिल्टर से कपड़े धोने के वास्ते  पानी छनने की छल- छल ध्वनि आ रही है और बाहर गली में पटाखे फूटने की  कर्कश आवाज। किताब के पन्ने पलटने की सरसराहट , टीवी के उद्घोषक का स्वर , कड़ाही में तरकारी के  चुरने की खुद - बुद, छन- छुन. और कुंजीपटल की खट - खुट.। कई तरह की आवाजें एक एक ही छत के नीचे   डेरा डाले हुए हैं। आज की यह शाम जो लगभग रात होने की संज्ञा को प्राप्त कर रही है कई तरह की आवाजों के एक समुच्चय में शामिल है। इस शामिलबाजे में  बहुत सी आवाजें  बाहर के ऑर्केस्ट्रा की हैं और ज्यादतर  भीतर के कोरस की।

अपने हिस्से का जीवन जीते हुए बहुत सारे काम करता हूँ - सबकी तरह। इन कामों में एक काम पढ़ना  - लिखना भी है। सोच रहा हूँ अभी इस वक्त जो  कुछ भी लिख रहा हूँ वह किस तरह का का लिखना  है ? क्या यह एकालाप - आत्मालाप - प्रलाप है ? या फिर अबोला आत्मसंवाद या कि किसी काम को किए जाने का आभास मात्र ? जो भी है यह जीवन है अपने हिस्से का जीवन जिसकी पूर्णता दूसरे के हिस्सों से जुड़ने से होती है और इसी होने में उसका होना है। इस जीवन में नदी है , जंगल है, कुछ आवाजें हैं और कुछ शब्द जिन्हें देखा जा सकता है पर छुआ नहीं जा सकता । विद्वतजन कहते हैं यह आभासी दुनिया है। इसी दुनिया के भीतर एक दूसरी दुनिया का भास।

उत्सव का राग-  रंग अब उतार पर है। जगह- उसके अवशेष स्थूल और सूक्ष्म रूप में  आसपास है। खिड़की - द्वार खोलने का अवकाश नहीं है बस सोच रहा हूँ कि  आसमान  की छत से दूज का चाँद भी क्षितिज तल  के घर में उतर गया होगा और अपने हिस्से का काम कर रहा होगा ताकि कल फिर कुछ और उजला और बंकिम होकर उदित हो सके। इस अंतराल में एक पूरी रात है और लगभग पूरा दिन।  अब मुझे भी रुक जाना चाहिए । उंगलियाँ थक रही हैं, मन भी कुछ - कुछ । अब विराम - अल्प विराम। समापन नहीं , संपन्नता भी नहीं बस अल्प विराम।

अब  यह रात है। दीवाली के बाद भी टँगी  लड़ियों - झालरों की रोशनी में डूबती जा रही रात। यह निसर्ग  द्वारा प्रदत्त  एक सार्वजनिक  विराम है , एक अंतराल। देश , काल की कोई बाधा नहीं इस काम में। यह प्रकृति का काम है। अपने होने को सतत सार्थक करता हुआ। चीजें धीरे- धीरे रुक रही हैं या यों कह सकते हैं कि उनके रुके होने का भास हो रहा है हमें।अब मुझे भी रुक जाना चाहिए ।  बहुत बार सुना - पढ़ा है काम के बाद  मशीन को भी आराम जरूर  चाहिए होता है ; हम और आप तो फिर भी मनुष्य हैं।

शनिवार, 10 नवंबर 2012

आभासी समुद्र की सतह पर

इस संसार के भीतर ही एक और संसार भी है - आभासी संसार। यह जितना कुछ बाहर है उतना ही भीतर भी। हमारे  संसार में संचार के साधनों की  निर्मिति , व्याप्ति और प्रयुक्ति  का दाय कितना है ; यह विमर्श का विषय हो सकता है किन्तु  हमारे जीवन में वह कैसा है यह लगभग सब देख रहे हैं। न केवल देख रहे हैं बल्कि उसके देखे जाने के एक टूल के रूप स्वयं की निजता  को भी अलंघ्य  तथा अलक्षित कर रहे है। हमारी इसी दुनिया में इंटरनेट ने एक ऐसी दुनिया रची है  जो दुनियावी यथार्थ के बरक्स एक दूसरी तरह  की दुनिया के यथार्थ को गढ़ने में लगी है जिसका आभास हमें है भी और  संभवत: नहीं भी। इसी दुनिया में , इसी जीवन में इंटरनेट का (भी) एक जगत व जीवन है  जिसे हम आज प्रस्तुत  जर्मन कवि मारिओ विर्ज़ की इस  छोटी - सी कविता के जरिए  निरख  - परख सकते हैं।


मारिओ विर्ज़ की कविता

इंटरनेट लाइफ़
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

आभासी समुद्र की सतह पर
संतरण कर रहा हूँ मैं अबाध
हर आकार में
मैं अविष्कृत कर रहा हूँ
सर्वशक्तिमान देवों के बीच एक देव
स्वयं के लिए ।

उदारता से मैं डुबो देता हूँ
अनिश्चित भाग्य को
सात सेकेंड में गढ़ देता हूँ एक दुनिया
और तिरोहित देता हूँ समूचा आख्यान
इस बात को  कोई जानता है तो  महज माउस।

एक कुंजीमात्र से
मैं इरेज कर देता हूँ मृत्यु को
और सेव  कर लेता हूँ
सौन्दर्य
युवापन
अनश्वरता

और
कुछ समय के लिए
नहीं फटकता मेरे पास जीवन।
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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

उच्चपथ पर ऊँट

इस कविता का एकाधिक स्थानीय संदर्भ है लेकिन इसमें वह है भी और शायद नहीं भी हो सकता है। जिस जगह मैं  इस समय रहता हूँ  वह पहाड़ की लगभग तलहटी का  शहर बनते  कस्बे  से सटा एक गाँव है। एक ऐसी  जगह  जहाँ  सड़क पर ऊँट का दिखाई दे जाना कोई  साधारण बात नहीं है क्योंकि यह  इस जगह का रोज का दृश्य नहीं है। ऐसे असाधारण दृश्य यहाँ कभी - कभार ही प्रकट  होते है और देखे जाते हैं। पिछले कुछ दिनों से एन० एच० पर एक अदद ऊँट दिखाई दे रहा था जो अब  एक - दो दिन से दीखना बन्द है। मैं जिस भौगोलिक परिवेश में बड़ा हुआ हूँ वहाँ ऊँट  दैनंदिन का हिस्सा नहीं है । इसलिए ऊँट मेरे जीवन में  चित्रों,  किताबों , किस्सों , मुहावरों   आदि की शक्ल में दाखिल हुआ है। एक बात और  , वह यह कि अब रोज बरती जा रही भाषा में   बड़ी सड़क के  लिए एन० एच०  'शब्द'  जितनी आसानी से उपस्थित और  उच्चरित हो जाता है उतनी  ही आसानी व सहजता से  राजपथ या उच्चपथ नहीं। बहरहाल,  अब और बतकही नहीं । अभी प्रस्तुत है परसों लिखी गई यह एक  छोटी - सी  कविता  : 


उच्चपथ पर ऊँट

इस शीर्षक में
अनुप्रास की छटा भर नहीं है
न ही किसी गैरदुनियावी दृश्य का लेखा
किसी तरह की कोई सतही तुकबंदी भी नहीं
यदि कहूँ कि उसे कल सड़क पर देखा

सड़क पर ऊँट था
और उसके पीछे थी हर्षाते बच्चों की कतार
मैंने देखा
इसी संसार में  बनता एक और संसार

अगर कविता लग रही हो
यहाँ तक कही गई बात
तो सुनें गद्य का एक छोटा - सा वाक्य -
            बच्चे अब भी पहचानते हैं ऊँट को
            किताब के पन्नों के बाहर भी

और हम...
हमें कदम - कदम पर दिखता है पहाड़
और आईने में झाँकने पर
अक्सर एक अदद ऊँट।
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( चित्र : विम लेमेंस की पेंटिंग , गूगल से साभार)

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना

इस पटल पर विश्व कविता के अनुवादों की  सतत साझी प्रस्तुति के क्रम में आज प्रस्तुत है सीरियाई कवि           ,चित्रकार ,संपादक  नाज़ीह अबू अफा  (१९४ ६) की यह छोटी - सी  कविता।  कवि का पहला संग्रह १९६८ में आया था   और अब तक उनके तेरह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  जिनमें ' द मेमोरी आफ़ एलिमेन्ट्स' और  'द बाइबिल आफ़ द ब्लाइंड' प्रमुख हैं।  दुनिया भर की कई भाषाओं में उनके कार्य का अनुवाद हो चुका है। आज की यह कविता एक प्रार्थना है , एक उम्मीद और अपनी दुनिया  की कुरूपताओं , विसंगतियों और अवांछित - अनावश्यक को को दूर कर  शुभ, सुन्दर व सहज को बचाने , बनाने और आगे ले जाने की एक ऐसी  शाब्दिक कोशिश जिसका मर्म  समझने के लिए सिर्फ शब्द भर पर्याप्त  नहीं हैं।  और क्या कहा जाय , बाकी तो  यह कविता है, अध्ययन और अभिव्यक्ति की  साझेदारी के इस ब्लॉग के  पाठक हैं  और सबसे बढ़कर हम सब की साझी संवेदनायें हैं। तो ,आइए देखते - पढ़ते हैं यह कविता :


नाज़ीह अबू अफा की कविता
इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

ले जाओ झुंड को - रेवड़ को
ले जाओ चरवाहों और गड़रियों को
ले जाओ -
          दार्शनिकों को
          लड़ाकों को
          सैन्य दलनायकों को
पर दूर ही रहो किसी बच्चे से
बख्शो उसे।
                                                                                                       
ले जाओ किलों और प्रासादों को                                            
ले जाओ -
           मठों को
           वेश्यालयों और देवालयों के स्तम्भों को
ले जाओ हर उस चीज को
जिससे क्षरित होती  है पृथ्वी की महत्ता
ले जाओ पृथ्वी को
और मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न।

यदि वे आरोहण करे पर्वतों का
तो मत भेजो उनके तल में भूकम्प
यदि वे  प्रविष्ट हों उपत्यकाओं  में
तो मत भेजो उनके उर्ध्व पर बाढ़ और बहाव।

बच्चे हमारे है और तुम्हारे भी
मुहैया कराओ उन्हें  ठोस और पुख्ता जमीन।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

जल्द , बहुत जल्द , जल्द ही ।

विश्व कविता के अनुवादों  के अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी  के क्रम में  इस ठिकाने पर पिछली पोस्ट के रूप में स्लोवेनियाई कवि बार्बरा कोरुन ( १९६३ ) की दो कवितायें 'चुंबन' और 'गर्मियों की काली रात में' साझा की थी। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है बार्बरा की एक और कविता जिसका शीर्षक है 'जल्द'।

         
जल्द / बार्बरा कोरुन
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

जल्द ही
तुम अवाक और अकेले हो जाओगे
जल्द ही
तुम्हारी खोपड़ी
भर जाएगी बालू के कणों से
जल्द ही
प्यास काला कर देगी तुम्हारी जिह्वा को
जल्द ही
मरुस्थल की हवा
तुम्हारी सफेद हड्डियों को चटखा देगी
जल्द ही।

तुम्हारी अँतड़िया
तुम्हारी सारी दैहिक कोमल आंतरिकतायें
चीर कर  बाहर कर दी जायेंगी
और धूप में सूखने के लिए छोड़ दी जायेंगीं
जल्द ही।                                                                        

जल्द ही
तुम असंख्य कणों में एक कण की तरह बिला जाओगे
जल्द ही
तुम गीत आओगे
रेत के ढूहों के साथ
और चुनते रहोगे -
   निरर्थकता
  न होने जैसा कुछ होना
जल्द ही।

तब मैं आऊँगी तुम्हारे पास
उत्तर दिशा की रोशनियों की मानिन्द
और आसमानी रंगों  में घुलकर
तुम्हारे वीरान रेगिस्तानी गीत
और दूसरी दुनिया की आवाज के पास

ओह ! मैं आउंगी
मैं आऊंगी
जल्द
बहुत जल्द
जल्द ही ।
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( * चित्र : अलेक्जेंडर बाज़रिन की पेंटिंग 'इन साइलेंस'/ गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

गर्मियों की काली रात में

Let me sink myself into you
Into the grace of your gaze....

विश्व कविता के अनुवादों  के अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी  के क्रम में आज प्रस्तुत हैं स्लोवेनियाई कवि बार्बरा कोरुन ( १९६३ ) की दो कवितायें। १९९९ में उनका पहला कविता संग्रह ' द एज़ आफ ग्रेस' प्रकाशित हुआ  था जिसे नवोदित कवि के  सर्वश्रेष्ठ प्रथम  संग्रह का  नेशनल बुक फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। उसके बाद से उनके तीन और कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा कई  संकलनों में उनकी कवितायें शामिल की गई है। दुनिया की एक दर्जन से अधिक भाषाओं उनके कविकर्म का अनुवाद हो चुका है। बार्बरा की कविताओं में अपने निकट का अनूभूत  उपस्थित  होता है जो देखने - अनुभव करने में किसी अन्य या इतर लोक  का अथवा  मानव जीवन  के राग - विराग  से विलग अन्य तत्व  का नहीं बल्कि अपना - सा ही लगता है। आइए , आज पढ़ते - देखते हैं ये दो कवितायें ......


बार्बरा कोरुन : दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- चुंबन

कौन - सा शब्द
शयन कर रहा है तुम्हारे अधरों तले
कौन - सा ?

कौन - सा दृश्य
दमक रहा है तुम्हारी पलकों के नीचे
कौन - सा ?

कौन - सी आवाज
प्रतिध्वनित हो रही है
तुम्हारे कानों के कोटर में ?

स्पर्श की मीठी आग में
उभर रही हैं
सुनहले पंखों वाली
लोल लहरें चुपचाप।

०२- गर्मियों की काली रात में

तुम्हारे लिए
एक फूल चुनने की अभिलाषा में
मैं उतर आई फुलवारी बीच

उलझ पड़ा मुझसे फूल
उसने मेरे चेहरे पर बिखेर दीं पत्तियाँ
और बींध दिया काँटों से

अब मैं
कर रही हूँ तुम्हारा इंतजार
घर के कोने में
निपट अकेली

हाथों में मेरे
महसूस हो रहा है
कांपता हुआ गुलाब
और अंधेरे में लगातार रिसता
उसका गर्म काला रक्त।
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( * चित्र : मोना वीवर की पेंटिंग - ऐब्स्ट्रैक्ट वुमन एंड रोज , साभार )

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

कवियों के लिए एक कविता

.....illusion, dissolve the frame that says:
“I look at you and see no evidence of me.”

इस ठिकाने पर विश्व कविता के अनुवादों  को साझा करने के क्रम में आज प्रस्तुत है अमरीकी कवि , गीतकार और पोएट लौरिएट सम्मान से नवाजे गए  अल यंग ( जन्म : ३१ मई १९३९ ) की एक  छोटी - सी कविता  , जो मुझे बहुत प्रिय है। अल यंग की कवितायें  अपने समकाल की ऐसी  कवितायें है जो पीछे का दृश्य दिखाने के साथ  सोच और समझदारी को अग्रसर  करने की राह सुझाने का काम भी बखूबी करती हैं। आज प्रस्तुत यह कविता  मेरी समझ से  किसी भी देश- काल के रचनाकार  के लिए रचनात्मक प्रतिबद्धता और रचना प्रक्रिया की तहें खोलने का काम करती है। अल यंग  की कुछ कविताओं की साझेदारी जल्द ही .....


अल यंग की कविता
कवियों के लिए एक कविता  

( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

बने रहो सौन्दर्य से भरपूर
किन्तु भूमिगत मत रहो लम्बी अवधि तक
बदल  मत जाओ बास मारती छछूंदर में
न ही बनो -
        कोई कीड़ा
                कोई जड़
               अथवा शिलाखंड।

धूप में थोड़ा बाहर निकलो
पेड़ो के भीतर साँस बन कर बहो
पर्वतों पर ठोकरें मारो
साँपों से गपशप करो प्यार से
और पक्षियों के बीच  हासिल करो  नायकत्व ।

भूल मत जाओ  अपने मस्तिष्क में छिद्र बनाना
न ही पलकें झपकाना
सोचो,  सोचते रहो
घूमते रहो चहुँ ओर
तैराकी करो धारा के विपरीत।

और... और
कतई मत भूलो अपनी उड़ान।
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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

गांधी और कविता

ल दो अक्टूबर है महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयन्ती का दिवस। कल  हमारे आसपास बहुत सारे कार्यक्रम  संपन्न  होंगे।  बहुत सारे लोगों के लिए यह छुट्टी का दिन भी है - राष्ट्रीय अवकाश। आभासी संसार भी  कल  खूब दो अक्टूबरमय रहेगा  - पिछले बरसों की तरह। कल हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में  बहुत सारी पोस्ट्स  बनेंगी  , गढ़ कर - जड़कर बनाई जाई जायेंगी और साझा  भी  की जायेंगी। कूछ ऐसा ही काम मैं आज और अभी करने जा रहा हूँ। आज  दोपहर  बाद सोचा था कि  शाम को  - रात को   या सोने पहले दो अक्टूबर  पर  कुछ लिखूँगा , पर लिख ना हो न सका और अब सो जाना है क्योंकि सुबह जल्दी जागना है। फरमाइशी या अवसर विशेष पर लिखने के मामले अक्सर खुद को बहुत  कंफर्टेबल नहीं पाता हूँ। कल दिन में  एकाध कार्यक्रमों  भाग भी लेना है। वहाँ अवसरानुकूल  कुछ कहना  - बोलना भी हो सकता है। इसी बारे में कुछ सोचते हुए याद आया कि  पिछले बरस 'कबाड़ख़ाना' पर  इसी दो अक्टूबर  के दिन ही  आधुनिक मलयाली कविता के  प्रणेता के० सच्चिदानंदन की  एक कविता 'गाँधी और कविता' का  अनुवाद प्रस्तुत किया था। यह कविता आज  एक बार फिर पढ़ी  गई  है और मन हुआ है  कि गाँधी जयंती के अवसर पर इसे 'कर्मनाशा'  के कविता प्रेमी पाठकों के साथ साझा किया जाना चाहिए.........


के० सच्चिदानंदन की कविता
गांधी और कविता
(अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह)

एक दिवस
एक कृशकाय कविता
पहुँची गांधी - आश्रम तक
उनकी एक झलक पाने के लिए।

गांधी कताई में लीन
सरकाए जा रहे थे राम की ओर अपने सूत
कोई ध्यान नहीं उस कविता का
जो द्वार पर किए जा रही थी सतत इंतज़ार।

लाज आ रही थी कविता को कि वह बन सकी कोई भजन
उसने खँखार कर किया अपना गला साफ
तब गांधी ने उसे देखा अपनी उस ऐनक से
जिससे देखे जा चुके थे तमाम तरह के नर्क।
उन्होंने पूछा-
'क्या तुमने कभी सूत काता है ?
क्या कभी खींचा है मैला ढोने वाले की गाड़ी को ?
क्या कभी सुबह- सुबह रसोई के धुएं में खड़ी रही हो देर तक?
क्या तुम रही  हो कभी भूखे पेट?'

कविता ने कहा:
'एक बहेलिए के मुख में
जंगल में हुआ मेरा जन्म
मछुआरे ने पाला पोसा अपनी कुटिया में.
फिर भी मुझे नहीं आता कोई काम
जानती हूँ केवल गान.
पहले मैंने दरबारों में गायन किया
तब मेरी काया थी हृष्ट-पुष्ट और कमनीय
लेकिन अब सड़कों पर हूँ
लगभग भूखी - दीन - क्षुधातुर।'

'अच्छी बात है' गांधी ने कहा
एक वक्र मुस्कान के साथ -
'लेकिन तुम्हें छोड़ना चाहिए
संस्कृत संभाषण की इस आदत को
जाओ खेत - खलिहानों में 
सुनो कृषकों की बातचीत।'

कविता अन्न में बदल गई
और खेतों में  जाकर  करने लगी इंतज़ार
कि प्रकट हो कोई हल
और उसके ऊपर बिछा दे
नई बारिश से आर्द्र भुरभुरी कुंवारी मिट्टी की सोंधी पर्त।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

सब कुछ गूगलमय

रात लगभग आधी बीत ही चुकी। लेकिन बात कुछ ऐसी है कि 'रह न जाए बात आधी।' घड़ी का काँटा १२ के डिजिट को विजिट कर  उस पार की यात्रा पर निकल गया। अब तो डेट भी बिना लेट किए करवट बदल ली। २७ की अठ्ठाइस हो चुकी। लेकिन बात तो आज ही  की है; आज ही की  शाम की है.....ये शाम कुछ अजीब थी....

आज शाम एक ताना सुनने को मिला कि मैं बहुत 'कर्री' और लगभग  'गद्द नुमा कवितायें' लिखने लग पड़ा हूँ। प्रोफ़ेसरी अपनी जगै है और कविता अपनी जगै। कविता तो भई वई है जिसमे लय होय, तुक होय और देखने - पढ़ने में एक अच्छी - सी लुक होय। लगे हाथ और बिल्कुल फ़्री में  एक अदद नसीहत भी मिली कि भय्ये  कभी कुछ हल्का-  फुल्का भी लिख लिया करो। ये कोई अच्छी बात तो नहीं है कि हर बखत माथे पर बल पड़ा रवे  और मुस्कुराहट को तरसते चेहरे के पतंग की डोर में थोड़ी ढील न दी जा सके। रात साढ़े नौ- पौने दस बजे कस्बे के एक बौद्धिक जमावड़े से घर की  लौटते हुए कुछ सोचा किया और गूगल के जन्मदिन पर कुछ  कागज पर गेर दिया । वही माल  अब कंपूटर के धरम काँटे पर भी मौजूद है।  ल्यो साब !  अब आपको कैसी लगे  क्या पता  किन्तु - परन्तु -लेकिन मेरी  समझ से जे एक हल्की - फुल्की-सी कवितानुमा  पेशकश.... उससे पहले पूर्वरंग या प्रीफेस..

कलम हाथ से छुट गई , की-बोर्ड माउस हाथ। 
जब देखो तब बना रहे  , कंप्यूटर  का साथ ॥
कंप्यूटर का साथ ,  विराजतिं  इंटरनेट  रानी।
उसी लोक की आज सुनाते , अकथ कहानी ॥
नेट दुनिया में राजते ,  गूगल जी   महाराज ।
सुनो ध्यान से चालू आहे उनका किस्सा आज


सब कुछ गूगलमय

गूगल जी का जन्मदिवस है , हैप्पी बड्डे आज।
इंटरनेट की इस दुनिया में बनें उन्हीं से काज ॥

डे नाइट खिदमत करने में रहें सदा ही तत्पर।
खोज-खाजकर ले आते हैं हर क्वेस्चन का उत्तर॥

देश वेश भाषा और यूजर उनके लिए सब यकसां।
देख - देख कर उनको बिसुरे,  घर का बुद्धू बक्सा॥

कुंजी और किताबों में जो ,  भरी ज्ञान की थाती।
बस एक क्लिक करते ही वह तो पास हमारे आती॥

बच्चे बूढ़े और यंगस्टर्स, हर  इक है   बलिहारी।
जिसको देखो वो ही गाए , गूगल विरद तुम्हारी ॥

जय हो जय हो सचमुच जय हो गूगल जी की जय।
आज तुम्हारे  बड्डे  पर तो  सब कुछ गूगलमय॥






मंगलवार, 25 सितंबर 2012

साधारण की असाधारणता और कवि छवि

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि बल्ली सिंह चीमा के साठ वर्ष पूरे पर उनके मित्रों  ने ०८ सितम्बर २०१२ को  नई दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में एक बहुत ही आत्मीय , सादा और गरिमापूर्ण  आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम की रपट 'कबाड़ख़ाना' पर पढ़ी जा सकती है। इस अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन भी किया गया जिसका संपादन डा० प्रकाश चौधरी ने किया है। इसी स्मारिका के लिए मैंने 'साधारण की असाधारणता और बल्ली सिंह चीमा की कवि छवि' शीर्षक एक आलेख लिखा था जो किंचित संशोधित शीर्षक  के साथ वहाँ प्रकाशित  हुआ है। आज वही आलेख यहाँ सबके साथ साझा है....


साधारण की असाधारणता और कवि छवि
                                                           
* सिद्धेश्वर सिंह

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी और बल्ली सिंह चीमा की एक ऐसी त्रयी है जिसने अपनी ग़ज़लो के जरिए  हिन्दी पट्टी की पूरी पीढ़ी को अपने तरीके से प्रभावित किया है और निरन्तर कर रही है। देखा जाय तो जिसे हिन्दी कविता की मुख्यधारा कहा जाता है उसमें ये कवि  बहुत उल्लेखनीय नहीं माने जाते हैं और न ही  हिन्दी कविता की चर्चा - परिचर्चा और पढ़ाई - लिखाई के  परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति को रेखांकित किया गया है। इन तीनो कवियों में  सबसे पहली समानता यह है कि इन्होंने  अपनी अभिव्यक्ति के लिए जिस काव्यरूप को चुना है वह  हिन्दी ग़ज़ल के नाम से जानी जाती है । निश्चित रूप से ग़ज़ल हिन्दी का पारम्परिक काव्यरूप नहीं है लेकिन  वह हिन्दी के लिए नितान्त  नई भी नहीं है। कबीर से  लेकर भारतेन्दु , निराला , शमशेर और अन्यान्य कवियों  ने इसे अपनाया है और शब्दों की मितव्ययिता तथा अभिव्यक्ति की अपार संभावना से युक्त इस विधा को सचमुच हिन्दी का अपना बना दिया है। दुष्यंत कुमार  ने इसे कवित्व और कथ्य के स्तर पर नव्यता दी  तथा  काव्यभाषा  को जनभाषा बनाकर  जन की बात कही तो दूसरी ओर  अदम गोंडवी ने एक कदम और आगे बढ़कर बिल्कुल खुले रूप में सामान्यजन के सुख - दुख को वाणी दी। इसी क्रम में बल्ली सिंह चीमा की ग़ज़लें भी भाव व भाषा की दृष्टि से अपना एक एक विशिष्ट स्थान रखती हैं और निरन्तर चर्चा में बनी हुई हैं।

बल्ली सिंह चीमा कवि हैं यह कहने - सुनने के बजाय यह अधिक कहने - सुनने को मिलता है कि  वह एक 'किसान कवि' हैं, एक ऐसा किसान जो खेतों में फसल तो बोता है कविता की खेती भी करता है। हिन्दी कविता की  परम्परा में  बल्ली सिंह चीमा का एक  विशिष्ट स्थान  है और उनके प्रशंसकों की एक  बहुत बड़ी कतार है तो इसके पीछे  क्या वजह हो सकती है? क्या इसके पीछे स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की विसंगतियाँ , असमानतायें और वे विद्रूपतायें है जो उनके कथ्य का  अविभाज्य हिस्सा बनती हैं? क्या यह वह भाषा है जो जन की भाषा है जिसमें कवित्व कोई दूसरी दुनिया और दूसरी भाषा  नहीं है? क्या यह विचारों के उथल - पुथल  से भरे हमारे समकाल में  व्याप्त वह जनपक्षधरता है जो  तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अब भी उम्मीद से भरी हुई है? क्या यह धूमिल की काव्य परंपरा है जिसमें कविता  एक वायवीय कर्म न होकर  भाषा में आदमी होने की तमीज है? बहुत सारे सवाल हो सकते हैं और उनके बहुत सारे जवाब भी तलाशे जा सकते हैं। काफी लंबे समय से  बल्ली सिंह चीमा  की कविताओं को पढ़ते - सुनते - गुनते हुए   बार - बार लगता  है उनके कवि का विकास निरन्तर हुआ है और कविता को लेकर  उनकी जो भी सार्वजनिक छवि हिन्दी में निर्मित हुई है वह बहुत कुछ उन कारणों से भी है  जो प्राय: कविता से बाहर की चीजें हैं ; दूसरे शब्दों में कहें तो ये वे चीजे हैं जो जो उनके काव्य के कथ्य में तो हैं ही, कथ्य के बाहर के संदर्भों में भी विद्यमान हैं। इसलिए जब भी उनकी कविताओं की बात होती है तो प्राय: भाव - विचार और कथ्य का उल्लेख ही प्रधान हो जाता है। यहाँ पर यह भी प्रश्न उठता है कि यदि हम कविता में कथ्य पर उंगली न रक्खें , उसके महत्व को स्वीकार अपने आसपास प्रसंगों और पारिस्थितिकी से न जोड़ें तो क्या उसे  मात्र एक कलारूप मानकर जीवन - जगत के संदर्भॊं से विलग कर  'काव्य विनोद'  तक सीमित कर दें?  इसी के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है कि  बल्ली सिंह  चीमा की कविता क्या केवल अपने कथ्य  एवं  समकालीन संदर्भॊं की प्रस्तुति के कारण बड़ी  है या उसमें  सामयिक - संदर्भ निरपेक्ष होकर कालजयी होने की  सचमुच ताकत निहित है जो देश- काल के परे भी कुछ कहने और कहलवाने में सहज सक्षम है?

कविता  में सामयिक , समकालीन व तात्कलिक संदर्भों का होना कोई नया  प्रसंग नहीं है। यह एक प्रकार से  ऐसी ताकत होती है जो  कवि को जन से  सीधे - सीधे जोड़ देती है और जनता को लगता है कि कवि भी  उसकी ही तरह एक सामान्य इंसान है और कविता कोई ऐसा विशिष्ट सांस्कृतिक कर्म नहीं है जिसका अपने समय व समाज से कोई लेना देना नहीं है। इस संदर्भ में  हम अपने आसपास नागार्जुन की बहुत सी  कविताओं  को सहज ही याद कर सकते हैं लेकिन  क्या यही सत्य है कि नागार्जुन की  कविता की समग्र पहचान क्या ऐसी ही कविताओं से निर्मित होती है? दूसरी बात यह भी है कि  एक लंबे समय  के गुजर जाने के बाद  परवर्ती पीढ़ी यदि किसी कविता को पढ़ती है तो  क्या उसे  अनिवार्यत: ऐतिहासिक संदर्भों को तलाशना ही होगा?  आइए , इस संदर्भ में  बल्ली सिंह चीमा की कविता से एक छोटा - सा  उदाहरण चुनते है :

मार्क्स कहे कुछ और, कमरेड कुछ और
इसीलिए चर्चित हुआ 'कामरेड का कोट'।

मान लीजिए कि ये दो पंक्तियाँ आज के उस पाठक के सामने प्रस्तुत हैं जो हिन्दी कविता का अपेक्षाकृत  नया पाठक तो है ही  आज की बदली हुई दुनिया में  देशकाल  को देखने समझने  का उसका  नजरिया भी वह नही है जो कविता की उत्सभूमि है तब यह पंक्ति क्या कहती व संप्रेषित करती  हुई  जान पड़ेगी है?  क्या इसे स्पष्ट करने के किए किताबों  - पत्रिकाओं के नए संस्करण में यह लिखा जाना चाहिए कि इस पंक्ति का संदर्भ प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका 'हंस'  के राजेन्द्र यादव द्वरा संपादित  नए नए रूप के अमुक अंक में प्रकशित  कहानीकार सृंजय की लंबी  कहानी 'कामरेड का कोट' से  जुड़ता है जो मार्क्सवाद के व्यावहारिक द्वंद्व को एक साधारण कार्यकर्ता के  माध्यम से प्रस्तुत बेधक तरीके से  करती है अथवा यह कहा जाय कि मार्क्सवाद के संदर्भ में विचार व क्रिया की द्वंद्वात्मकता यहाँ  इन  पंक्तियों में प्रस्तुत हुई है?  निश्चित रूप से  इस काव्य पंक्ति में 'कामरेड का कोट'  से कहीं  अधिक व स्पष्ट संदेश कामरेड का कृत्य है। दूसरे शब्दों में यह कहने व करने का  वह विभेद है जो  हमारे समय को लगातार जटिल , जनविमुख और जर्जर बनाता जा रहा है। आइए यहीं पर  बल्ली सिंह चीमा की एक और पंक्ति को देखते हुए आगे बढ़ते हैं: :

अब भी लू में जल रहे हैं जिस्म अपने साथियो,
आइए,  मिलजुल के कुछ ठंडी हवा पैदा करें।

यह पंक्ति भी एक साधारण पंक्ति है जिसमें  मिलजुल कर लू में जलते हुए जिस्मों के लिए ठंडी हवा पैदा करने की बात की गई है। यह तो  इस पंक्ति का सामान्य अर्थ है जो काव्यार्थ में ढलकर दलित शोषित जनता की एकता और जहाँ कहीं भी अन्याय , अनीति व असमानता है उसके विरुद्ध निरन्तर संघर्ष की बात को प्रकट करती है। इस पंक्ति में साधारणता व सार्वदेशिकता तथा सार्वकालिकता है जो इसे एक काव्य पंक्ति के रूप  में प्रतिष्ठित करता है क्योंकि यह कहीं भी कभी लागू होने वाला सत्य बन जाता है । एक अच्छी कविता की यही पहचान है कि वह जिस  बात को कहना चाहती है वह सदैव एक जैसी रहती है क्योंकि उसकी बात मनुष्यता के पक्ष में होती है ; देशकाल व सामयिकता से निरपेक्ष सार्वजनीन व सार्वकालिक। यह अलग बात है कि उसमें सामयिक संदर्भ खोजे जा सकते हैं किन्तु वे संदर्भ बात को विस्तार देने वाले हों , उसे सीमित करने वाले नहीं। ऐसा कहने के पीछे आशय यह नहीं है कि बल्ली सिंह चीमा की कविताओं में कालजयिता के तत्व बहुत कम हैं और उनकी कविता मुख्यत:  सामयिकता से पूर्ण है। बात यह है कि हमारे आज के काव्य परिदृश्य पर बल्ली सिंह चीमा की जो कवि छवि निर्मित होती रही है वह मुख्यत: उन ग़ज़लों पर आधारित है जो कथ्य के स्तर पर अत्यधिक मुखर और वाचाल दिखाई देती हैं। वैसे यह कोई नई बात भी नहीं है हिन्दी की जनवादी कविता या हिन्दी में जो कवि जनकवि माने जाते हैं उनकी कविता के साथ इस तरह की बात बहुत पहले से होती रही है। यह प्रसंग पर तो निर्भर करता ही  है , पाठ भी इसमें कम महत्वपूर्ण नहीं है।

बल्ली सिंह चीमा के अब तक चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी चर्चा- प्रशंसा भी खूब हुई है। उन्हें कई  पुरस्कार व सम्मान भी मिल चुके हैं। वे हिन्दी के सचमुच लोकप्रिय और लोककवि हैं। आज के ऐसे समय में जब पूरे साहित्यिक परिदृश्य से गाँव जैसी चीज  लगभग  तिरोहित होती जा रही है तब वह निश्चित्त रूप से हमारे उन कवियों में से हैं  जो  सहज भाषा में आमजन की बात कहने में सक्षम हैं। यह सच है उनकी शुरुआती कविताओं में  एक खास किस्म की अनगढ़ता विद्यमान थी जो उन्हें एक तरह से भीड़ में अलग से पहचाने जाने का कारण भी बनी और कम से कम कवित्व में अधिक - अधिक सहज संप्रेषणीयता उनकी ताकत बनी ; वह दौर अब जा चुका है। जनता की लड़ाई भी अब उतनी सीधी व सपाट दिखाई देने वाली नहीं है तब कवि बल्ली सिंह चीमा को पढ़ना और हिन्दी कविता के बड़े परिदृश्य पर उनकी  उपस्थिति की छाप को ऐतिहासिकता के आईने में देखने की कोशिश करने पर  यह साफ दिखाई देता है कि  एक कवि के रूप में बल्ली सिंह चीमा  विकसित हुए हैं और  निरन्तर विकासमान हैं। यह विकास उनकी अपनी टेक से विचलन या विपर्यय नहीं है। हिन्दी में हुआ यह है  कि कुछ  चुनिंदा जिन ग़ज़लों के आधार  पर  बल्ली सिंह चीमा की कवि छवि निर्मित हुई है वह  उनके एक विपुल काव्य संसार को छोड़कर  निर्मित हुई है जिसमें प्रकृति है , प्रेम है और जीवन के  कठिन जीवन क्रियाकलापों से निकला जीवन दर्शन है। इधर की लिखी गज़लों में  बल्ली सिंह चीमा अपनी  पुरानी टेक के आसपास ही हैं क्योंकि वही उनकी केन्द्रीयता भी है फिर भी  न केवल कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर भी वह अपनी कवि छवि को तोड़ने में सतत संलग्न , सक्रिय व सन्नध दिखाई देते हैं। यह एक बड़ी और अच्छी बात है क्योंकि  एक पाठक की हैसियत से मैं इसे सामयिकता से कालजयिता की ओर  अग्रसर एक यात्रा के रूप में देखकर  प्रसन्न हूँ और आश्वस्त भी। और अंत में बल्ली सिंह चीमा की यह नई गज़ल जो सचमुच नई है और परंपरा का निर्वाह करते हुए नव्यता की नई राहें भी अन्वेषित करती जान पड़ती है : 

यूँ मिला आज वो मुझसे कि खफ़ा हो जैसे 
मैंने महसूस किया मेरी खता हो जैसे। 

तुम मिले हो तो ये दर -दर पे भटकना छूटा 
एक बेकार को कुछ काम मिला हो जैसे। 

जिंदगी छोड़ के जायेगी न जीने देगी 
मैंने इसका कोई नुकसान किया हो जैसे। 

वो तो आदेश पे आदेश दिये  जाता है 
सिर्फ़ मेरा नहीं दुनिया का का खुदा हो जैसे।   

तेरे होठों पे मेरा नाम खुदा खैर करे 
एक मस्जिद पे श्रीराम लिखा हो जैसे। 

मेरे कानों में बजी प्यार भरी धुन 'बल्ली' 
उसने हौले से मेरा नाम लिया हो जैसे। 
---------
( *  ऊपर स्मारिका की  विमोचन  छवि में दिखाई दे रहे हैं : बायें से वीरेन डंगवाल, से० रा० यात्री, बल्ली सिंह चीमा, मंगलेश डबराल, पंकज बिष्ट,रामकुमार कृषक और जसवीर चावला। स्मारिका अब पीडीएफ में भी उपलब्ध है यदि कोई मित्र इसे देखना - बाँचना - पढ़ना चाहते हैं तो अपना ई मेल पता दे सकते हैं। उनके साथ पूरी स्मारिका साझा कर हमें खुशी होगी )

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कर्मनाशा से गुजरते हुए

इस बीच पत्र पत्रिकाओं में मेरे कविता संग्रह ' कर्मनाशा' की कुछ समीक्षायें आई है / आ रही हैं। सही बात है कि इनसे समीक्षाओं से को देखकर  अपने सोचे -सहेजे लिखे को दूसरों के नजरिए से देखने में  मदद अवश्य मिलती है।हिन्दी की लिखने - पढ़ने वालों की बिरादरी में पुस्तक समीक्षायें अमूमन गद्य में ही लिखी जाती है। आज मैं 'कर्मनाशा' की एक समीक्षा जो गद्य से इतर है और कविता के निकट  है , को सबके साथ साझा करना चाह रहा हूँ। वैसे देखा जाय तो यह समीक्षा भी नहीं है ; यह एक आत्मीय की , मित्र की सहज प्रतिक्रिया है ; ऐसे मित्र की से जिसके साथ लंबे समय  पढ़े - पढ़ाये, सोचे - समझे को साझा करते एक उम्र बीत गई है और हम साथ - साथ हैं। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है कि आपसी संवाद को साझा या सार्वजनिक करना कोई  अच्छी बात तो नहीं है।  डा०  प्रकाश चौधरी मेरे मित्र हैं, सखा हैं और फिलहाल गाजियाबाद के एम०एम०एच० कालेज में  फिजिक्स के एसोशिएट प्रोफ़ेसर के रूप में काम कर हैं ।उन्होंने मेरी किताब पर लिखी यह प्रतिक्रिया फेसबुक पर  साझा किया था। मैं तो बस उनकी  साझेदारी के काम को थोड़ा और आग्रसर कर रहा हूँ बस।  डा० प्रकाश लम्बे समय से सहित्य  - संपादन- थिएटर-  संस्कृति- समाज से जुडी़ गतिविधियों में सक्रिय जुड़ाव रखते हैं। आइए, देखते हैं  कविता की किताब की यह एक काव्यात्मक  समीक्षा या काव्य -  प्रतिक्रिया...

कर्मनाशा से गुजरते हुए .....

सरसों के खेत
और नहाती स्त्रियों के
सानिध्य मे
नदी अपवित्र नहीं हो सकती ....
तभी तुम
बचा लाते हो दाज्यू ढूंढती लड़की को
दिल्ली के शिकंजो से.

और हां
वो कांच की खिड़की
पर आंसू की लकीर...
माफ़ करना, लड़की के नहीं
कर्मनाशा के नायक के हैं - तुम्हारे हैं
जो कीमत चुका रहे हैं - कविता कहने की.

स्मृतियों-विस्मृतियों के बीच
बहती तुम्हारी कर्मनाशा
स्वप्निल पहाड़ों, जादुई विस्तारों से
होते हुए
धूल - गंध और गुबार तक .
बहती जरूर है.

चटख धूप में
ढलवां छत पर पसरी बर्फ,
नीले आकाश में
नए गीत लिखते
नुकीले देवदार वृक्ष,
चाय के गिलास से उठती भाप की लय,
धुएं के छल्ले बनाते गोल होंठ,
फिर भला अमलतास
क्यों न दे
तुम्हें भरपूर उर्जा,
कि तुम रचो अपनी कर्मनाशा का भरा-पूरा संसार.
-----
- प्रकाश चौधरी

रविवार, 2 सितंबर 2012

जब भी मैं सुनता हूँ रेलगाड़ी की आवाज

तुर्की कवि ओरहान वेली ( १९१४ - १९५०) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर पहले भी पढ़ चुके हैं। ओरहान वेली,  हमारे समय का एक ऐसा कवि जिसने केवल ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक , जितना भी जीवन जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया। आइए उसके विविधवर्णी काव्य संसार में तीन छोटी - छॊटी कविताओं के जरिए एक बार पुन:  प्रविष्ट हुआ जाय और देखा जाय कि जहाँ  बड़े विचार , बड़ी स्थितियाँ और बड़े संघर्ष  सतह पर  दिखाई नहीं  देते हैं वहाँ एक संवेदनशील कवि किस प्रकार अपने एकांतिक  संसार में  लघुता में विराटता के मर्म को महसूस और  व्यक्त  करता  है....


ओरहान वेली की तीन कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- शराब घर

नहीं करता अब
उसे प्रेम
फिर क्यों घूमता हूँ हर रात
शराबघरों में !

और पीता हूँ हर रात
उसकी याद में
उसे याद करते - करते - करते!


०२- अच्छा मौसम

इस अच्छे मौसम ने तबाह कर दिया मुझे

इसी मौसम में
मैंने दिया था इस्तीफा
अपनी सरकारी नौकरी से

इसी मौसम में
मैं हुआ था तंबाकू की लत का शिकार

इसी मौसम में
मैं पड़  गया था प्यार में

इसी मौसम  मैं
मैं भूल गया घर ले जाना नून - तेल

हाँ, ऐसे ही मौसम में
कवितायें लिखने की व्याधि ने
मुझे ग्रस्त किया था दोबारा ...बार - बार

इस अच्छॆ मौसम ने
तबाह कर दि्या मुझे
सचमुच तबाह।


०३- रेलगाड़ी की आवाज

हालत खस्ता है मेरी
कोई सुंदर स्त्री नहीं आसपास
जो दिल को दे सके कुछ दिलासा

इस शहर में
कोई पहचाना चेहरा भी नहीं

जब भी मैं सुनता हूँ रेलगाड़ी की आवाज
मेरी दो आँखें
बन जाती हैं दो प्रपात।