मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

दु:ख में सरापा

तमाम फेसबुकिया मित्रों से क्षमा सहित और इसी दुनिया के यायावरों के  लिए आदर और प्यार के साथ एक (और)अतुकान्त तुक.. आज अपनी एक और कविता..


फेसबुक-३

शब्द पर हम सब रीझते हैं।
अर्थ  से  जरा - सा खीजते हैं।

वक्त की  दोपहर में  तन्हा,
बेसबब सूखते - सीझते हैं।

सुख  सहज  ही टपकता है ,
दु:ख में  सरापा भींजते हैं।

सच से बच-बच  के चलते हैं ,
आँख अपनी खुद मींचते है।

बेतुके दौर में  तुक खोजते हैं,
बात को दूर तलक खीचते हैं।

बयाबाँ में बचे नन्हे शजर को,
अहसासों  के अब्र से सींचते हैं! 
....
* यदि समय हो और मन करे तो फेसबुक -१  तथा फेसबुक-२ भी देख सकते हैं।

6 टिप्‍पणियां:

अजेय ने कहा…

सिधेश्वर भाई, फेस बुक शीर्षक से कविता का दायरा ज़रा सिमट नहीं गया?

siddheshwar singh ने कहा…

yes ajai bhaai..u r right..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत खूब!
तुकान्त का अच्छा प्रयोग किया है आपने!

बाबुषा ने कहा…

बात तो सही है सर !
खुद से भागने कि साज़िश हैं सभी नेटवर्किंग साइट्स ! मैं भी भागती हूँ ! सब भागते हैं ! अच्छे इंतज़ाम हो गए हैं अब तो इस बात से बचने कि कहीं किसी दिन खुद से मिलाकात न हो जाए ! बैठे रहते हैं वहीं- आपके शब्दों में 'मुखपोथी' पे ! डरते क्यों हैं हम खुद अपना सामना करने से ? क्यों रहना चाहते हैं हमेशा भीड़ में गुम ?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अहसासों की नयी बुक।

ZEAL ने कहा…

Beautiful poetry !