सोमवार, 27 अप्रैल 2009

बदल रहा है संसार









बादल से कहा
बदलो बन जाओ पानी
धूप में सीझ रही हैं वनस्पतियाँ
गला खुश्क है स्कूल से लौटते बच्चों का.

हवा से कहा
बदलो बन जाओ आक्सीजन
मृत्यु शय्या पर पड़े रोगी को
अभी कुछ और वसंत देखने की है ताब.

खुशबू से कहा
बहको बन जाओ उल्लास
कबाड़ होती हुई इस दुनिया में
फूलों के खिलने को बची रहनी चाहिए जगह.

बड़ी लम्बी है यह फेहरिस्त....
सबसे कहा
सबने मान ली सलाह
मगर खुद से कह न पाया एक भी बात
निष्क्रिय - निरर्थक से बीत रहे हैं दिन रात.

सोचता हूँ खुद से कहूँ -
भाषा के चरखे पर
इतना महीन न कातो
कि अदॄश्य हो जायें रेशे
कपूर - सी उड़ जाये कपास.
बचो !
तुम्हारे तलवों तले दब रही है
नन्हीं -नर्म घास.

बहुत हुई कविता
शब्दों का केंचुल उतार धरो
बदलो बन जाओं मनुष्य
बदल रहा है संसार .

4 टिप्‍पणियां:

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

बहुत हुई कविता
शब्दों का केंचुल उतार धरो
बदलो बन जाओं मनुष्य
बदल रहा है संसार .

bahut khoob...!

डॉ .अनुराग ने कहा…

निदा फाजली की नज़्म याद आ गयी... "अल्लाह मिया "को समर्पित...

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

मनुष्य द्वारा
मनुष्य को
मनुष्य बन जाने की
सीख!

अद्-भुत!

Manish Kumar ने कहा…

ek alag andaz mein ek alag sa sandesh deti lagi aapki ye kavita